Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
कहा - " में आपसे यही मांगता हूँ कि आप दृढ़ एवं अविचल सम्यक्त्वी रहें।" देव ने कहा- "यह तो मेरे ही हित की बात है। आप अपने लिए कुछ लीजिये ।" वज्रायुध ने कहा-“ मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए।" फिर भी देव ने वज्रायुध को दिव्य अलंकार दिये और चला गया। उसने ईशानेन्द्र की सभा में आ कर वज्रायुध की प्रशंसा की। ईशानेन्द्र ने कहा--" महानुभाव वज्रायुध भविष्य में तीर्थंकर होंगे।"
__ एक बार वसन्तऋतु में वनविहार करने के लिए वज्रायुध अपनी लक्ष्मीवती आदि ७०० रानियों के साथ सुरनिपात उद्यान में आया और एक जलाशय में क्रीड़ा करने लगा। वह जलक्रीड़ा में मग्न था और रानियों के साथ विविध प्रकार के जलाघात के खेल खेल रहा था । उधर पूर्वजन्म का शत्रु, दमितारि प्रति वासुदेव का जीव, भवभ्रमण करता हुआ देवभव प्राप्त कर चुका था। वह विद्युदृष्ट नाम का देव वहाँ आया। वज्रायुध को देखते ही उसका दबा हुआ वैर जाग्रत हो गया। उसने परिवार सहित वज्रायुध को नष्ट करने के लिए उस जलाशय पर एक पर्वत ला कर डाल दिया और चला गया। वज्रायुध, इस आकस्मिक विपत्ति से घबड़ाया नहीं, किन्तु अपने प्रबल पराक्रम से उस पर्वत को तोड़ कर परिवार सहित बाहर निकल आया। उधर प्रथम स्वर्ग का सौधर्मेन्द्र महाविदेह में जिनेश्वर की पर्युपासना कर के लौट रहा था। उसने महानुभाव वज्रायुध को देखा। उसने सोचा-"यह वज्रायुध इस भव में चक्रवर्ती सम्राट होगा और बाद के भव में तीर्थकर होगा"-ऐसा सोच कर इन्द्र वज्रायुध से मिला । उन्हें आदर सम्मान दे कर कहा-"आप धन्य हैं । भविष्य में आप ही भरतक्षेत्र के 'शांतिनाथ' नाम के सोलहवें तीर्थंकर बनेंगे।" यों कह कर इन्द्र प्रस्थान कर गया और वज्रायध अपने अन्तःपूर के साथ नगर में आये।
महाराजा क्षेमंकर ने लोकान्तिक देवों के स्मरण कराने से वार्षिक दान दे कर प्रव्रज्या स्वीकार की । वज्रायुध को राज्यभार प्राप्त हुआ । मुनिराज क्षेमंकर ने विविध प्रकार के तप से घातिकर्मों का क्षय कर के केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त किया।
एक समय अस्त्रागार के अधिपति ने महाराजा वज्रायुध को शस्त्रागार में चक्ररत्न के प्रकट होने की बधाई दी। महाराजा ने चक्ररत्न प्रकट होने का महोत्सव किया। इसके बाद अन्य तेरह रत्न भी प्रकट हुए। उन्होंने छह खण्ड की साधना की और अपने पुत्र सहस्रायुध को युवराज पद पर प्रतिष्ठित किया।
एक बार महाराजा राजसभा में बैठे थे। महामन्त्री, अधिनस्थ राज्यों के सम्बन्धों और समस्याओं पर निवेदन कर रहे थे कि इतने ही में एक विद्याधर युवक भयभीत दशा
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