Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
आपके देखने में आती है । यदि कोई आश्चर्यजनक वस्तु आपके देखने में आई हो, तो हमें भी सुनाइये।"
नारदजी का मनोरथ सफल होने का अवसर उपस्थित हो गया । वे मन में प्रसन्न हुए और कहने लगे;
__"राजन् ! मैं आज ही एक अद्भुत आश्चर्य देख कर आ रहा हूँ। मैं ‘शुभा' नाम की नगरी में गया था । अनन्तवीर्य राजा की सभा में मैने बर्बरिका और किराती नाम की दो रमणियाँ नृत्य-कला में इतनी प्रवीण देखी कि उनके जैसा नृत्य तो कदाचित स्वर्ग में भी नहीं होगा। मैं स्वर्ग में भी गया हूँ, किंतु मैने ऐसा उत्कृष्ट नृत्य तो वहाँ भी नहीं देखा ।"
___ "नराधिप ! जिस प्रकार देवों में इन्द्र सर्वोत्तम ऋद्धि का स्वामी है, उसी प्रकार इस पृथ्वी पर एक आप ही ऐसे नरेन्द्र हैं कि जहाँ सर्वोत्तम वस्तु सुशोभित होती है । मेरे विचार से वे उत्कृष्ट नृत्यांगनाएँ आपके ही योग्य हैं । जब तक आप उन्हें यहाँ ला कर अपनी सभा का गौरव नहीं बढ़ाते, तब तक आपकी समृद्धि में न्यूनता ही रहेगी।" ।
बस, लगा दी चिनगारी-नारदजी ने। यह नहीं सोचा उन्होंने कि मेरी इस बात से कितना अनर्थ हो जायगा । अनजान में आदर नहीं होना, अपमान नहीं है । किंतु उन्हें इस बात का विवेक नहीं था। वे विष का बीज बो कर चले गए। ... नारदजी की बात सुनते ही तीन खंड के अधिपति (प्रतिवासुदेव) पन का गर्व दमितारि के मन में उठ खड़ा हुआ। उसने अपना राजदूत अनन्तवीर्य नरेश के पास भेजा। दूत ने बड़ी शिष्टता के साथ नृत्यांगना की माँग की । राजा ने दून से कहा- "तुम जाओ। हम बाद में विचार कर के दासियों को भेज देंगे।" - दूत चला गया। उसके बाद दोनों भाइयों ने परामर्श किया कि दमितारि विद्या के बल से हम पर शासन करता है। हम भी विद्याधर मित्र की दी हुई महाविद्या को सिद्ध कर लें तो फिर हम उससे टक्कर ले सकेंगे। इस प्रकार निश्चय कर के वे विद्या सिद्ध करने को तत्पर हुए । उनके निश्चय करते ही प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ स्वतः प्रकट हुई और उनके शरीर में समा गई । दोनों भाई बलवान् तो थे ही, इन विद्याओं की प्राप्ति से कवचधारी सिंह की भाँति अधिक बलवान हो गए।
जब दोनों नर्तकियां दमितारि के पास नहीं पहुँची, तो उसने पुनः दूत भेजा। दूत ने तिरस्कारपूर्वक कठोर शब्दों में नर्तकियों की मांग की और यहां तक कहा कि--" यदि
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