Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० शांतिनाथजी--सुतारा का हरण
अमिततेज, अपनी बहिन सुतारा के साहरण की बात सुन कर क्रोधित हुए। उन्होंने योद्धाओं की एक बड़ी सेना, अपने वीर पुत्रों सहित श्रीविजय को दी और श्रीविजय को शस्त्रावरणी, बन्धनी और विमोचनी विद्याएँ दीं। सेना चमरचंचा की ओर बढ़ी। अमिततेज जानता था कि अशनिघोष के पास कई प्रकार की विद्याएँ हैं । इसलिए उसकी समस्त विद्याओं पर विजय पाने के लिए 'महाज्वाला' नाम की विद्या साधना आवश्यक है। वह अपने पराक्रमी पुत्र सहस्ररश्मि के साथ हिमवंत पर्वत पर गया। वहाँ महर्षि जयंत कायोत्सर्ग कर ध्यानस्थ थे । महर्षि को वन्दना कर के वह मास पर्यन्त चलने वाली साधना में लग गया और सहस्ररश्मि उसकी रक्षा करने लगा।
श्रीविजय, उस विशाल सेना के साथ अमिततेज की राजधानी चमरचंचा पहुँचा । उसने अपना दूत भेज कर अशनिघोष को भर्त्सनापूर्वक सुतारा को अर्पण करने की मांग की। अशनिघोष कब मानने वाला था ? उसने दूत को तिरस्कार पूर्वक निकाल दिया और युद्ध
ना सहित अपने पूत्रों को भेजा। यद्ध आरंभ हो गया। घमासान यद्ध में हजारों मनुष्य मारे गये । जब अशनिघोष के पुत्र और सेना हार गई, तो स्वयं अशनिघोष रणभूमि में आया। उसने पराक्रम से अमिततेज के पुत्रों का बल क्षीण कर दिया । वे घायल और सुस्त हो गए। यह दशा देख कर श्री विजय नरेश आगे आये और अशनिघोष से युद्ध करने लगे। दोनों वीरों का यद्ध अनेक प्रकार के घात-प्रत्याघात से चलता रहा । दोनों योद्धा अपनी-अपनी शस्त्र-शक्ति और विद्या-शक्ति का प्रयोग करने लगे। अन्त में श्रीविजय ने अशनिघोष के शरीर के दो टुकड़े कर दिये, तो विद्या-शक्ति से दोनों टुकड़ों के दो अशनिघोष बन कर लड़ने लगे। उन दो के चार टुकड़े हुए, तो चारों वैसे ही बन कर लड़ने लगे। होते-होते शत्रु की संख्या हजारों तक पहुँच गई।श्रीविजय के लिए अब युद्ध करना असंभव हो गया। इतने में अमिततेज विद्या सिद्ध कर के आ पहुँचा। उसने महाज्वाला विद्या छोड़ी। इस विद्या का तेज सहन नहीं कर सकने के कारण शत्रु-सेना शस्त्र डाल कर अमिततेज की शरण में आ गई और अशनिघोष भाग गया। अमिततेज ने महाज्वाला विद्या को अशनिघोष के पीछे, उसे पकड़ लाने के लिए लगा दिया।
आगे-आगे अशनिघोष और पीछे महाज्वाला नाम की विद्या--जो अन्य सभी विद्याओं का पराभव कर के विजयी होती है। अशनिघोष को कही भी शरण नहीं मिली। अन्त में वह दक्षिण-भरत में पहुँचा। सीमान्त के निकट ही एक पर्वत पर महर्षि अचल मुनि, एक रात्रि की भिक्षु-प्रतिमा धारण कर शुक्ल-ध्यान में लीन थे। उन्होंने घातिकर्मों को
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