Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 324
________________ भ० शांतिनाथजी सुतारा का हरण भी सैकड़ों गुना अधिक था । वह अग्निशिखा विद्युत् लहर सीधी राजसिंहासन पर उतरी और वैश्रमण की मूर्ति के कई टुकड़े हो गए। उपद्रव दूर हुआ जान कर मन्त्रियों, राजकुटुम्बियों और अन्तःपुर ने भविष्यवेत्ता पर स्वर्ण, रत्न आदि की वृष्टि की। मैने भी उसे पद्मिनीखंड नगर प्रदान किया और वैश्रमण की रत्नमय नई प्रतिमा बना कर प्रतिष्ठित कर दी । भयंकर विघ्न टल जाने से मन्त्री, अधिकारीगण एवं प्रजाजन यह महोत्सव मना रहे हैं ।" -- Jain Education International ३११ श्रीविजय नरेश से उपरोक्त वृत्तान्त सुन कर अमिततेज हर्षित हुआ । उसने अपनी बहिन को वस्त्रालंकार का प्रीतिदान दे कर संतुष्ट किया और कुछ दिन रह कर अपनी राजधानी में लौट आया । सुतारा का हरण एक वार श्रीविजय नरेश, रानी सुतारा के साथ वनविहार के लिए ज्योतिर्वन में गए । वे वहाँ क्रीड़ा कर ही रहे थे कि कपिल का जीव अशनिघोष विद्याधर आकाश मार्ग से कहीं जा रहा था । उसकी दृष्टि सुतारा पर पड़ी। पूर्व का स्नेहानुबन्ध जाग्रत हुआ । यद्यपि अशनिघोष, यह नहीं जानता था कि यह सुन्दरी मेरी पूर्वभव की पत्नी है, तथापि अदृश्य मोह- प्रेरणा से वह सुतारा पर पूर्ण रूप से आसक्त हो गया और उसका हरण करने का निश्चय किया । विद्याएँ उसकी सहायक हो गई । उसने एक सुन्दर मृग की विकुर्वणा की । वह मृग नाचता-कूदता और चौकड़ी भरता हुआ क्रीड़ारत राजा और रानी के निकट हो कर निकला । मृग को देख कर रानी मोहित हो गई और राजा से उस मृग को पकड़ लाने के लिए आग्रह किया । राजा, मृग के पीछे भागा, बहुत भागा, किन्तु वह तो छल मात्र था । वह भुलावा दे कर भागता रहा । इधर वह विद्याधर सुतारा को उठा कर ले उड़ा । उस दुरात्मा ने राजा का जीवन नष्ट करने के लिए प्रतारिणी विद्या का सहारा लिया और सुतारा का दूसरा रूप बना कर उससे जोर की चिल्लाहट करवाते हुए कह'मुझे कुक्कुट सर्प डस गया । हाय में मरी ।" यह आवाज सुनते ही राजा घबड़ाया और शीघ्रता से दौड़ कर वहाँ आया। उन्होंने देखा उसकी प्राणप्रिय रानी छटपटा रही है। राजा ने वहाँ जितना भी हो सका उपचार किया, किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ और रानी मर गई। रानी का वियोग राजा सह नहीं संका और संज्ञा शून्य हो गया। थोड़ी देर बाद लाया - " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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