Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चक्रवर्ती मनत्कुमार
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हमें ये शस्त्र और रथ ले कर आपको देने के लिए, हमारे पिता श्री चन्द्रवेग और भानुबेग ने भेजा है। हम आपके श्वसुरपक्ष के हैं । हमारे पिता भी सेना सज्ज कर के आपकी सहायता के लिए आ रहे हैं।" आर्यपुत्र शस्त्र-सज्ज होने लगे। इतने में ही शत्रु-सेना आ गई । दूसरी ओर चन्द्रवेग और भानुवेग भी सेना ले कर आ गये। आर्यपुत्र को रानी वन्ध्यावली ने 'प्रज्ञप्ति' नाम की विद्या दी । यद्यपि आर्यपुत्र उसके भाई को मारने वाले थे और उसके पिता तथा समस्त पिनकल के विरुद्ध यद्ध करने जा रहे थे, तथापि 'स्त्रियाँ स्वभाव से ही पति के वश में होती हैं, उनका सर्वस्व पति ही होता है।' तद्नुसार वन्ध्यावली ने भी आर्यपुत्र की सहायता में प्रज्ञप्ति विद्या दी । प्रियतम शस्त्र-सज्ज हो कर शत्रुसैन्य की प्रतीक्षा करने लगे। इतने में सहायक-सेना आ पहुँची और शत्रु सेना भी आ गई । युद्ध छिड़ गया। दोनों पक्ष जम कर लड़ने लगे । जब दोनों ओर की सेना क्षतविक्षत हो गई, तब अशनिवेग और सनत्कुमार स्वयं भिड़ गये । विविध प्रकार शस्त्रों से दोनों का युद्ध होने लगा । अन्त में आर्यपुत्र के शस्त्र-प्रहार से अशनिवेग मारा गया और उसका राज्य आर्यपुत्र के अधिकार में आ गया। ये विद्याधरों के अधिपति बने। इसके बाद विद्याधरों के शिरोमणि ऐसे मेरे पिता चन्द्रवेग ने आर्यपुत्र से कहा- "मुझे ज्ञानी मुनिराज ने कहा था कि तुम्हारी पुत्रियों का पति सनत्कुमार होगा।" यह भविष्यवाणी सफल करें और मेरी बकुलमति आदि सौ पुत्रियों को स्वीकार करें। उसी समय मेरा और मेरी बहिनों का विवाह आपके मित्र के साथ हुआ। हम सभी आर्यपुत्र के साथ विविध प्रकार के भोग भोगती रहीं। आज हम सभी यहां क्रीड़ा करने आये थे। सद्भाग्य से आपका यहाँ शुभागमन हो गया।"
बकुलमति से मित्र के पराक्रम और मद्भाग्य की कथा सुन कर महेन्द्रसिंह प्रसन्न हुआ। इतने में सनत्कुमार भी रतिगृह से निकल कर मित्र के समीप आये। कुछ काल व्यतीत होने के बाद महेन्द्र ने सनत्कुमार से निवेदन किया कि 'अब अपने नगर को चल कर माता-पिता के वियोग-दुःख को मिटाना चाहिए।' राजकुमार ने मित्र की सलाह मान कर तत्काल प्रस्थान की तय्यारी कर दी। रानियों, अनेक विद्याधराधिपतियों, अनुचरों और साज-सामान के साथ, विमान द्वारा चल कर वे हस्तिनापुर आये । माता-पिता के हर्ष का पार नहीं रहा । नगर भर में उत्सव मनाया गया। महाराज अश्वसेन ने पुत्र के प्रबल पराक्रम को देख कर, अपने राज्य का भार कुमार सनत्कुमार को दिया और महेन्द्रसिंह को उनका सेनापति बनाया। इसके बाद वे स्थविर मुनिराज के पास दीक्षित हो गए।
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