Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
वह कहाँ चला गया? वास्तव में औदारिक-शरीरी मानव का सुख, सुन्दरता और आरोग्यता क्षणिक होती है । इस प्रकार वे मन ही मन खेदित हो रहे थे। उन्हें विचार-मग्न एवं खिन्न मुख देख कर नरेश ने पूछा
----"पहले तुम मुझे देख कर प्रसन्न हुए थे । किन्तु अभी तुम्हारे चेहरे पर विषाद झलकता है । क्या कारण है इसका ?"
__ --" नरेन्द्र ! सत्य यह है कि हम सौधर्म कल्पवासी देव हैं । सौधर्मेन्द्र से आपके रूप की प्रशंसा सुन कर यहाँ आये हैं। उस समय आपका रूप देख कर हम प्रसन्न हुए थे। वास्तव में आपका रूप वैसा ही था। किन्तु अभी इस रूप में अनिष्ट परिवर्तन हो गया है। इस समय आपके रूप के चोर ऐसे कई रोगों ने इस अनुपम रूप को घेर लिया है। इससे आपका वह अलौकिक रूप नहीं रहा और विद्रूप हो गया है।" इतना कह कर देव अन्तर्धान हो गए।
देवों की बात सुनते ही नरेन्द्र ने अपने शरीर को ध्यानपूर्वक देखा । उन खुद को अपना शरीर तेजहीन, फीका एवं म्लान दिखाई दिया। उन्होंने विचार किया;--
"रोग के घर इस शरीर को धिक्कार है। ऐसे सरलता से बिगड़ने वाले शरीर पर मुर्ख लोग ही गर्व करते हैं। जिस प्रकार दीमक, काष्ठ को भीतर ही भीतर खा कर खोखल बना देता है. उसी प्रकार शरीर में से उत्पन्न रोग, सुन्दर शरीर को भी विद्रूप बना देते हैं । जिस प्रकार वट-वृक्ष के फल बाहर से ही सुन्दर दिखाई देते हैं, परन्तु भीतर तो वह कुरूप और कीड़ों का निवास बना होता है, उसी प्रकार मनुष्य का शरीर कभी ऊपर से सुरूप दिखाई दे, तो भी उसके भीतर तो कुरूपता ही भरी हुई है । उसमें कीड़े कुलबुला रहे हैं । रोग एवं वृद्धावस्था से शरीर शिथिल हो जाता है, फिर भी आशा और तृष्णा ढीली नहीं होती। रूप चला जाता है, परन्तु पाप-बुद्धि नहीं जाती। इस संसार में रूप-लावण्य, कांति, शरीर और द्रव्य, ये सभी कुशाग्र पर रही हुई जल-बिन्दु के समान अस्थिर है । इसलिए इस नाशवान् शरीर से सकाम-निर्जरा वाला तप करना ही उत्तम है।" इस प्रकार चिन्तन करते हए महाराजा सनत्कुमार विरक्त हो गए और अपने पुत्र को राज्यभार सौंप कर श्री विनयधर आचार्य के समीप प्रवजित हुए । श्री सनत्कुमार के दीक्षित हो कर जाते ही उनके पीछे उनका परिवार भी चल निकला। लगभग छह महीने तक पीछे-पीछे फिरने के बाद परिवार के लोग हताश हो कर लौट आये। उन सर्व-विरत, ममत्व-त्यागी, विरक्त महात्मा ने उनकी ओर स्नेहयुक्त दृष्टि से देखा ही नहीं । दीक्षित होते ही महात्मा सनत्
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