Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१९०
तीर्थकर चरित्र
जो लोग कहते हैं कि यह शरीर मृतिका, जल, अग्नि, वायु और सूर्य की किरणों के स्नान से शुद्ध होता है, उन्होंने शरीर की वास्तविकता नहीं समझी और चमड़ी को देख कर ही रीझे हुए हैं।
जिस प्रकार बुद्धिमान् मनुष्य, खारे पानी के समुद्र में से रत्न ढूंढ कर निकालते हैं, उसी प्रकार बुद्धिमान् मनुष्यों को ऐसे दुर्गन्धमय देह से, केवल मोक्ष रूपी फल का उत्पादक ऐसा तप ही करना चाहिए । इसी से महान् सुख की प्राप्ति होती है ।
रसासृग्मांसमेदोस्थिमज्जशुक्रांत्रवर्चसा । अशुचीनां पद कायः, शुचित्वं तस्य तत्कुतः ॥ १॥ नवस्रोतः स्रवद्विस्ररसनिःस्यंदपिच्छिले ।
देहेपि शौचसंकल्पो, महन्मोहविजूंभितम् ।। २ ।। --रस, रुधिर मांस मेद, हड्डी, मज ना, वीर्य, अंतड़ियाँ एवं विष्ठादि अशुचि के घर रूप इस शरीर में पवित्रता है ही कहाँ ? देह के नौ द्वारों से बहता हुआ दुर्गन्धित रस और उससे लिप्त देह की पवित्रता की कल्पना करना या अभिमान करना, यह तो महामोह की चेष्टा है । इस प्रकार का विचार करने से मोह-ममत्व कम होता है।
भगवान् के 'दत्त' आदि ९३ गणधर हुए। २५०००० साधु, ३८०००० साध्वियाँ, २००० चौदह पूर्वधर, ८००० अवधिज्ञानी, ८००० मनःपर्यवज्ञानी, १०००० केवली, १४००० वैक्रिय लब्धिधारी, ७६०० वादी, २५०००० श्रावक और ४९१००० श्राविकाएँ हुई।
प्रभ चौबीस पूर्वांग और तीन महिने कम एक लाख पूर्व तक तीर्थंकरपने विचरते हए भव्य जीवों का उपकार करते रहे। फिर मोक्ष-काल निकट आने पर एक हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखर पर्वत पर एक मास के अनशन से भाद्रपद-कृष्णा सप्तमी को श्रवणनक्षत्र में सिद्ध गति को प्राप्त हुए । प्रभु का कुल आयु दस लाख पूर्व का था।
आठवें तीर्थकर
भगवान ॥ चन्द्रप्रभः स्वामी का चरित्र सम्पूर्ण ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org