Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० श्रेयांसनाथजी-अश्वग्रीव का भयंकर युद्ध और मुत्यु
२३३
"हे नाथ ! हमने अज्ञानवश एवं परतन्त्रता से अब तक आपका जो अपराध किया, उसे क्षमा करें । अब आज से हम आपके अनुचर के समान रहेंगे और आपकी सभी आज्ञाओं का पालन करेंगे।"
वासुदेव ने कहा-" नहीं, नहीं, तुम्हारा कोई अपराध नहीं । स्वामी की आज्ञा से युद्ध करना, यह क्षत्रियों का कर्तव्य है । तुम भय छोड़ कर मेरी आज्ञा से अपने-अपने राज्य में निर्भय हो कर राज करते रहो।"
इस प्रकार सभी राजाओं को आश्वस्त कर के त्रिपृष्ठ वासुदेव, इन्द्र के समान अपने अधिकारियों और सेना के साथ पोतनपुर आये । उसके बाद वासुदेव, अपने ज्येष्ठबन्ध अचल बलदेव के साथ मातों रत्नों + को ले कर दिग्विजय करने चल निकले।।
उन्होंने पूर्व में मागधपति, दक्षिण में वरदाम देव और पश्चिम में प्रभास देव को आज्ञाधीन कर के वैताढय पर्वत पर की विद्याधरों की दोनों श्रेणियों को विजय किया और दोनों श्रेणियों का राज, ज्वलनजटी को दे दिया। इस प्रकार दक्षिण भरतार्द्ध को साध कर वासुदेव, अपने नगर की ओर चलने लगे।। चलते-चलते वे मगधदेश में आये । वहाँ उन्होंने एक महाशिला, जो कोटि पुरुषों से उठ सकती थी और जिसे 'कोटिशिला' कहते थे, देखी । उन्होंने उस कोटिशिला को बायें हाथ से उठा कर मस्तक से भी ऊपर छत्रवत् रखी । उनके ऐसे महान् बल को देख कर साथ के राजाओं और अन्य लोगों ने उनकी प्रशंसा की। कोटिशिला को योग्य स्थान पर रख कर आगे बढ़े और चलते-चलते पोतनपुर के निकट आये। उनका नगर-प्रवेश बड़ी धूमधाम से हुआ । शुभ मुहूर्त में प्रजापति, ज्वलनजटी, अचल-बलदेव आदि ने त्रिपृष्ठ का 'वासुदेव' पद का अभिषेक किया । बड़े भारी महोत्सव से यह अभिषक सम्पन्न हआ।
भगवान् श्रेयांसनाथजी ग्रामानुग्राम विचरते हुए पोतनपुर नगर के उद्यान में पधारे । समवसरण की रचना हुई । वनपाल ने वासुदेव को प्रभु के पधारने की बधाई दी। वासुदेव, सिंहासन त्याग कर उस दिशा में कुछ चरण गये और जा कर प्रभु को वन्दननमस्कार किया। फिर सिंहासन पर बैठ कर बधाई देने वाले को साढ़े बारह कोटि स्वर्णमद्रा का पारितोषिक दिया। इसके बाद वे आडम्बरपूर्वक भगवान् को वन्दने के लिए निकले । विधिपूर्वक भगवान् की वन्दना की और भगवान् की धर्म देशना सुनने में तन्मय
+ १ चक्र २ धनुष ३ गदा ४ शंख ५ कौस्तुभमणि ६ खड्ग और ७ वनमाला । ये वासुदेव के सात रत्न हैं।
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