Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० अनंतनाथजी--धर्मदेशना
पारितोषिक रूप में उससे भी अधिक प्राप्त होगा। यदि तुमने ऐसा नहीं किया, तो सर्वस्व हरण कर लिया जायगा।"
राजदुत के ऐसे असह्य वचन सुन कर राजकुमार पुरुषोत्तम ने तत्काल कहा--
"दूत ! तुम तो सन्देश-वाहक हो, इसलिए तुम्हें मुक्त ही रखा जाता है, किन्तु इस प्रकार निर्लज्जतापूर्वक कटुतम शब्द कहलाने वाला तेरा स्वामी उन्मत्त तो नहीं हो गया है ? उसे कोई भूत-प्रेत तो नहीं लग गया है ? कौन मानता है उस घमण्डी दुर्मद को अपना स्वामी ? हमने कभी उसे अपना अधिकारी नहीं माना, न अब मानते हैं। इसलिए हे दूत ! तू चला जा यहाँ से, और अपने स्वामी को भेज । हम उसके घमण्ड का उपाय करेंगे। कदाचित् उसके जीवन के दिन पूरे होने आये हों ? उसकी राज्य-लक्ष्मी उससे रूठने ही वाली है और वह हमारी होगी। हम मधु का विनाश कर के उसके समस्त ऐश्वर्य के स्वामी बनेंगे।"
दोनों के बीच युद्ध हुआ। मधु प्रतिवासुदेव मारा गया और पुरुषोत्तम वासुदेव विजयी हुए। उनका सार्वभौम अर्ध भरताधिपति के रूप में राज्याभिषेक हुआ ।
तीन वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद भगवान् श्री अनंतनाथ स्वामी को सहस्राम्रवन उद्यान में अशोकवृक्ष के नीचे बेले के तप से रहे हुए, वैशाख-कृष्णा चतुर्दशी को रेवती-नक्षत्र में केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। भगवान् का समवसरण हुआ। भगवान् ने धर्मदेशना दी । यथा
धर्मदेशना
तत्व निरूपण
भगवान् ने अपनी प्रथम धर्मदेशना में फरमाया कि--
"हे भव्य जीवो ! तत्त्व को नहीं समझने वाले जीव, द्रव्य से सूझते हुए भी भाव से अन्धे हैं । जिस प्रकार मार्ग के नहीं जानने वाले, अटवी में भटकते रहते हैं, उसी प्रकार तात्त्विक ज्ञान के अभाव में जीव, संसार रूपी महा भयंकर अटवी में भटकते रहते हैं।
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