Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चक्रवती मघवा
भगवान् श्री वासुपूज्य स्वामी के तीर्थ में, भरत क्षेत्र के महिमंडल नामक नगर में नरपति नामक राजा राज करता था । वह सदाचारी, न्यायी और अनाथों का नाथ था । वह किसी भी जीव का अनिष्ट नहीं करता था और सभी का उचित रीति से पालन करता था । वह महानुभाव अर्थ और काम- पुरुषार्थ में अरुचि रखता हुआ धर्म - पुरुषार्थ का सेवन करने वाला था । वह देव गुरु और धर्म की आराधना करने में तत्पर रहता था । धर्म - भावना में विशेष वृद्धि होने पर नरेश ने संसार त्याग कर सर्व-संयम स्वीकार कर लिया और चिरकाल तक उत्तम रीति से आराधना कर के मृत्यु पा कर मध्य ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुआ ।
इसी भरत क्षेत्र में श्रावस्ती नाम की एक श्रेष्ठ नगरी थी । 'समुद्रविजय' नाम का राजा वहाँ राज करता था । वह प्रतापी, विजयी और सदाचारी था । 'भद्रा' नाम की सुलक्षणी एवं उत्तम शील-सम्पन्न महारानी थी । नरपति मुनिराज का जीव ग्रैवेयक की अपनी आयु पूर्ण कर के महारानी भद्रा के गर्भ में उत्पन्न हुआ । महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे । जन्म होने पर मघवा (इन्द्र) के समान पराक्रम वाले लक्षण देख कर पिता ने पुत्र का 'मघत्रा' नाम रखा । वय प्राप्त होने पर राजकुमार महान् योद्धा एवं पराक्रमवान् हुआ । महाराजा समुद्रविजय के बाद वह राज्य का संचालन करने लगा । कालान्तर में राज्य के शस्त्रागार में ' चक्ररत्न' प्रकट हुआ, तथा अनुक्रम से 'पुरोहित रत्न' आदि चक्रवर्ती महाराजा के योग्य सभी रत्न अपने-अपने स्थान पर उत्पन्न हुए और सभी नरेश के अनुशासन में आ गये । इसके बाद चक्ररत्न आयुधशाला में से निकल कर चलने लगा। उसके पीछे महाराजा मघवा भी चलने लगे । उन्होंने पूर्व के भरत और सगर चक्रवर्ती के समान छह खंड का विजय किया और राज्याभिषेक कर के 'तीसरे चक्रवर्ती महाराजाधिराज' के रूप में प्रसिद्ध हुए ।
चक्रवर्ती सम्राट के सामने मनुष्य सम्बन्धी सभी प्रकार की देवोपम उत्कृष्ट भोगसामग्री विद्यमान थी, किन्तु आप भोग में अत्यंत लुब्ध नहीं हुए और धर्म-भावना वृद्धिंगत करते रहे। अंत में राज्य - सम्पदा और सभी प्रकार के काम-भोगों का त्याग कर के आपने श्रमण धर्म स्वीकार कर लिया और चारित्र का पालन करते हुए समस्त कर्मों को क्षय कर के मोक्षगामी हुए / 1
7 ग्रंथकार लिखते हैं कि ये तीसरे देवलोक में गये । पू० श्री घासीलालजी म. सा. भौ उत्तराध्ययन की अपनी टीका - भाग ३ पृ. १८० में ऐसा ही उल्लेख करते हैं, परन्तु उत्तराध्ययन सूत्र अ०
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