Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
करता हुआ, आयु पूर्ण कर, उसी देवलोक में आभियोगिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ और हाथी के रूप में उस इन्द्र की सवारी के काम में आने लगा । वहाँ का आयु पूर्ण कर अग्निशर्मा का जीव, जन्म-मरण करता हुआ असित नामक यक्ष हुआ ।
इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नाम का नगर था । वहाँ अश्व की विशाल सेना से पृथ्वी को प्रभावित करने वाला व शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला 'अश्वसेन' नाम का राजा था। वह सदाचारी, सद्गुणी और ऋद्धि-सम्पन्न था। याचकों के मनोरथ पूर्ण करने में वह तत्पर रहता था । उसके सहदेवी नाम की महारानी थी । रूप एवं लावण्य में वह स्वर्ग की देवी के समान थी। जिनधर्मं का जीव, प्रथम स्वर्ग की इन्द्र सम्बन्धी ऋद्धि भोग कर, आयु पूर्ण होने पर महारानी सहदेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर एक स्वर्ण-सी कांति वाला एवं अनुपम रूप-सम्पन्न पुत्र का जन्म हुआ । उस बालक का ' सनत्कुमार' नाम दिया गया । वह बिना विशेष प्रयत्न के ही समस्त विद्याओं और कलाओं में पारंगत हो गया। अनुक्रम से वह यौवन वय को प्राप्त हुआ ।
सनत्कुमार के महेन्द्रसिंह नाम का एक मित्र था । वह योद्धा, बलवान् और अपने विशिष्ट पराक्रम से विख्यात था । सनत्कुमार अपने मित्र महेन्द्रसिंह और अन्य कुमारों के साथ मकरन्द नामक उद्यान में क्रौड़ा करने गया । वहाँ उसे कुछ घोड़े दिखाई दिये । किसी राजा ने ये उत्तम घोड़े महाराज अश्वसेन को भेंट के रूप में भेजे थे । वे घोड़े पंचधारा में चतुर और उत्तम लक्षण वाले थे । सनत्कुमार ने उन घोड़ों का अवलोकन किया। उनमें से ' जलधिकल्लोल' नाम का एक घोड़ा, जल-तरंग के समान चपल और सभी अश्वों में उत्तम था । सनत्कुमार को उस अश्व ने आकर्षित कर लिया । वह उसी समय उसकी लगाम पकड़ कर, उस पर सवार हो गया। उसके सवार होते ही घोड़ा एकदम भागा और आकाश में उड़ रहा हो - इस प्रकार शीघ्र गति से दौड़ा। राजकुमार लगाम खिंच कर अश्व को रोकने का प्रयत्न करने लगा, किन्तु ज्यों-ज्यों लगाम खिंचता, त्यों-त्यों अश्व की गति विशेष तीव्र बनती । सनत्कुमार के साथ महेन्द्रसिंह और अन्य राजकुमार भी घोड़ों पर सवार हो कर चले थे । किन्तु सभी साथी पीछे रह गए और सनत्कुमार उन सभी की आँखों से ओझल हो गया । सनत्कुमार का एकाकी अदृश्य होना सुन कर महाराज अश्वसेन चिन्तित हुए और स्वयं सेनाले कर खोज करने निकल गए। वे घोड़े के चरण चिन्ह और मुँह में से झरते हुए फेन ( झाग ) का अनुसरण करते हुए खोज करने लगे । अचानक ध
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