Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थङ्कर चरित्र
प्राण रहित करने के लिए ही उद्यत हो जाय, तो सोचना चाहिए कि -- ' मेरा आयुष्य ही पूरा होने आया होगा, इसलिए यह दुष्ट निर्भय हो कर पाप-कर्म बांध रहा है और मरे हुए को ही मार * रहा है ।
समस्त पुरुषार्थ का अपहरण करने वाले क्रोध रूपी चोर पर ही तुझे क्रोध नहीं आता, तो अल्प अपराध करने वाले ऐसे दूसरे निमित्त पर क्रोध कर के तू खुद धिक्कार का पात्र बन रहा है।
जो बुद्धिमान् पुरुष हैं, वे समस्त इन्द्रियों को क्षीण करने वाले और चारों ओर फैले हुए क्रोध रूपी विषधर को, क्षमा रूपी गारुड़ी मन्त्र के द्वारा जीत लेते हैं ।
मान-कषाय का स्वरूप
मान कषाय, विनय, श्रत, शील तथा धर्म-अर्थ एवं मोक्ष रूप त्रिवर्ग का घात करने वाला है और प्राणियों के विवेक रूपी नेत्रों को बन्द कर देता है । जहाँ मान की प्रबलता होती है, वहाँ विवेक दृष्टि बन्द हो कर अन्धता आ जाती है । जाति, कुल, लाभ, ऐश्वर्य, बल, रूप. तप और श्रुत का मद करने वाला मानव, अभिमान के चलते ऐसे कर्मों का संचय कर लेता है कि जिससे उसे उसी प्रकार की हीनता प्राप्त होती है, जिसके कारण अभिमान किया।
- प्रत्यक्ष में जाति के ऊँच, नीव और मध्यम ऐसे अनेक भेद देख कर कौन बुद्धिमान जाति-मद को अपना कर अपने लिए भविष्य में नीच जाति प्राप्त करने वाले कर्मो का संचय करेगा ? जाति की हीनता अथवा उत्तमत्ता कर्मों के फलस्वरूप मिलती है और जीव की जाति सदा एक नहीं रहती, किन्तु कर्मानुसार बदलती रहती है, फिर थोड़े दिनों के लिए ऊँच जाति पा कर कौन समझदार ऐसा होगा जो अशाश्वत और नाशवान् जाति का अहंकार करेगा?
लाभ जो होता है, वह अन्तराय कर्म के क्षय से होता है। बिना अन्तराय कर्म क्षय हुए लाभ नहीं हो सकता । जो पुरुष इस वस्तुतत्त्व को जान लेता है, वह तो लाभ का मद कभी नहीं करता। राज्याधिपति या सत्ताधारियों की प्रसन्नता और किसी प्रकार की
* क्योंकि उसका आयु-कर्म तो पूर्ण होने वाला है, प्रसलिए वह तो मरा हुआ है और मारने वाला उसे मार कर व्यर्थ हो पाप-भार से अपनी आत्मा को भारी बना रहा है।
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