Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ. धर्मनाथ जी--- वासुदेव चरित्र
--" मैं वही कर रही हूँ जो मुझे करना चाहिए। मैं विधवा' बनना नहीं चाहती। तुम्हारे पिताश्री अब बचने वाले नहीं हैं। उनका रोग उन्हें उठाने ही आया है । मुझ में इतनी शक्ति नहीं कि मैं एक क्षण के लिए भी उनका वियोग सहन कर सकूँ । यदि उनके स्वर्ग सिधार जाने के बाद, एक पलभर भी मैं जीवित रही, तो विधवा हो ही जाउँगी। इसलिए मैं अग्नि प्रवेश कर के स्वामी की उपस्थिति में ही प्रस्थान करना चाहती हूँ। तुम सयाने हो, समझदार हो, तुम पर ज्येष्ठ बन्धु की कृपा है । हमारे दिन तो अब बीत ही चुके हैं । आखिर हमें जाना तो है ही। मृत्यु मुझे पकड़ कर ले जावे, इसके पूर्व ही मैं मौत का पल्ला पकड़ लूं, तो यह अच्छा ही होगा। अब तुम जाओ। एक शब्द भी मत बोलो। तुम्हारे पिताश्री की भी तय्यारी हो रही है।"
इस प्रकार कहते ही वह झपाटे से निकल गई और पहले से तय्यार कराई हुई जाज्वल्यमान चिता में कूद कर प्राणान्त कर गई।
राजकुमार, माता को जाते देखते ही रहे, न तो उनके मुँह से एक शब्द ही निकला और न वे वहाँ से हिल ही सके। सेवक ने उन्हें चलने का कहा, तब वे आगे बढ़े और एक अशक्त के समान कठिनाई से पिता के पास आ कर भूमि पर गिर पड़े। रोगग्रस्त राजा ने कुमार से कहा
"वत्स ! ऐसी कायरता मत लाओ । तुम वीर हो । तुम्हारा इस प्रकार भूमि पर ढल जाना शोभा नहीं देता। तुम तो इस भूमि के एक-छत्र स्वामी होने योग्य हो । कायरता लाने से तुम्हारा पुरुषसिंह नाम कलंकित होगा । उठो ! संसार में मरना-जीना तो लगा ही रहता है।" इस प्रकार आश्वासन देते हुए शुभ भाव वाले शिव नरेश ने देह त्याग दिया । राजकुमार मूच्छित हो गए। कुछ समय बीतने पर उनकी मूर्छा दूर हुई । पिता की अग्नि-संस्काराद उत्तर-क्रिया की गई। बड़े भाई सुदर्शनजी को पिता की मृत्यु का समाचार दिया गया । वे भी सुन कर दुःखी हुए और शीघ्रतापूर्वक शत्रु को जीत कर लौट आये । सुदर्शनजी को देखते ही पुरुषसिंह उठ कर उनके गले लग गये और दोनों भाई खूब रोये । धीरे-धीरे शोक का प्रभाव हटने लगा ।
एक दिन महाराजाधिराज निशुंभ का दूत आया और दोनों राजकुमारों से कहने लगा;--
___ "आपके पिताजी के देहावसान के समाचार सुन कर सम्राट निशुंभदेव को बहुत शोक हुआ । आपके पिताजी की स्वामी-भक्ति का स्मरण कर के आपके हित के लिए
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