Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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नार्थंकर चरित्र
में है । मैं देवोपम उत्कृष्ट सुखों को भोग रहा हूँ । आपको जिस दुर्लभ वस्तु की आवश्यकता हो, वह निःसंकोच मुझ से लीजिए । में आपको वह वस्तु दूंगा ।"
नारदजी बोले -- " राजन् ! मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, न मैं कुछ लेने के लिए यहाँ आया हूँ। मैं तो वैसे ही क्रीड़ा करता हुआ यहाँ चला आया । किंतु तुम्हें अपने प्रभुत्व का अभिमान नहीं करना चाहिए। कुछ चाटुकारों की प्रशंसा सुन कर और निर्बल राजाओं को वश में कर लेने मात्र से तुम सर्वजीत नहीं हो जाते। इस पृथ्वी पर एक से एक बढ़ कर रत्न होते हैं ।”
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-- " नारदजी ! तुम क्या कहते हो' 1- जरा उत्तेजित हो कर मधु नरेश बोला" इस दक्षिण-भरत में क्या, गंगा से बढ़ कर भी कोई नदी है और वैताढ्य से बढ़ कर भी कोई पर्वत है ? आप बताइए कि मुझ से बढ़ कर कौन योद्धा आपके देखने में आया ?"
--" द्वारिका नगरी के सोम राजा के सुप्रभ और पुरुषोत्तम नाम के दो पुत्र ऐसे युद्धवीर, पराक्रमी और रिपुदमी हैं कि जिनके सामने दूसरा कोई योद्धा टिक नहीं सकता । वे युगल भ्राता ऐसे लगते हैं कि जैसे स्वर्ग से शक और ईशान इन्द्र उतर आये हों । वे अपने भुजबल से सागर सहित पृथ्वी पर अधिकार करने योग्य हैं । जब तक वे विद्यमान हैं, तब तक तुम्हारा यह दावा निरर्थक है कि - " मैं दक्षिण-भरत का अधिपति हूँ"नारद ने कहा ।
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'यदि आपका कहना सही है, तो मैं आज ही सोम, सुप्रभ और पुरुषोत्तम को युद्ध के लिए आमन्त्रण देता हूँ और इनसे द्वारिका का राज्य अपने अधिकार में कर लेता हूँ । आप यहीं रह कर तटस्थतापूर्वक अवलोकन करें ।"
इस प्रकार कह कर मधु नरेश ने अपने एक विश्वस्त दूत को समझा कर सोम राजा के पास द्वारिका भेजा । दूत ने राज सभा में पहुँच कर और चेहरे पर विशेष रूप से दर्प धारण कर गर्वोक्तिपूर्वक बोला ;
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--" राजम् ! अहंकारियों के गर्व को गलाने वाले, विनीत पर वात्सल्य भाव रखने वाले और प्रचण्ड भुजबल से सभी पर विजय प्राप्त करने वाले, त्रिखण्डाधिपति महाराजाधिराज मधुकरजी का आदेश है कि पहले तो तुम भक्तिपूर्वक हमारी आज्ञा में रहते थे, किन्तु सुना है कि तुम्हारे दोनों पुत्र बड़े दुर्धर्ष हो गए और तुम भी पुत्र के पराक्रम से प्रभावित हो कर बदल गए हो। इसलिए यदि तुम्हारी भक्ति पूर्ववत् हो, तो तुम्हारे पास जो कुछ सार एवं मूल्यवान् वस्तु हो, वह दण्ड स्वरूप अर्पण करो। ऐसा करने पर तुम्हें
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