Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० अनंतनाथजी
धातकीखंड द्वीप के पूर्व-विदेह क्षेत्र के ऐरावत विजय में अरिष्टा नामकी एक महानगरी थी पद्मरथ नाम के महाराजा वहाँ के अधिपति थे। उन्होंने अपने सभी शत्रुओं को जीत कर विजय तथा राज्य लक्ष्मी प्राप्त कर ली थी और अब मोक्ष-लक्ष्मी साधने में उत्सुक हो गये थे । अब वे राज्य-लक्ष्मी को तृणवत् तुच्छ मानने लगे थे। उनके भवनों, उपवनों और नगर में अनेक प्रकार के उत्सव, नाटक, नृत्य और खेल-तमाशे हो कर मनोरंजन हो रहा था, किंतु पद्मरथ महाराज की उनमें रुचि नहीं रही । वे निर्लिप्त रह कर लोक-रीति का निर्वाह करते थे । कुछ समय के बाद वे 'चित्तरक्ष' नाम के मुनिराज के पास प्रवजित हो गए और रत्नत्रय का विशुद्ध रीति से पालन करते हुए, तीर्थकर नाम-कर्म का बन्ध कर लिया तथा मृत्यु पा कर प्राणत देवलोक के पुष्पोत्तर विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए।
जम्बूद्वीप के दक्षिण-भरत में अयोध्या नाम की नगरी थी। सिंहसेन नरेश अयोध्या के स्वामी थे। वे बलवान्, प्रतापी एवं सद्गुणी थे । राज्य की सीमा के समीप रहे हुए बहुत-से राज्यों के राजा उनकी प्रसन्नता एवं कृपा पाने के लिए उत्तम वस्तुओं की भेंट करते रहते थे। महाराजा सिंहसेन के 'सुयशादेवी' नाम की महारानी थी। वह रूप, लावण्य, कला, कुल और शील से सम्पन्न थी। उसमें उत्तम गुणों का निवास था ।
प्राणत देवलोक में रहे हुए पद्मरथ देव ने अपना उत्कृष्ट आयु पूर्ण कर के श्रावणकृष्णा सप्तमी को रेवती-नक्षत्र में च्यव कर सुयशा महारानी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ।
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