Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२३४
तीर्थकर चरित्र
हो गए । देशना सुन कर कितने ही लोगों ने सर्वविरति प्रव्रज्या स्वीकार की, कितनों ही ने देशविरति ग्रहण की और वासुदेव-बलदेव आदि बहुत-से लोगों ने सम्यग्दर्शन रूपी महारत्न ग्रहण किया।
भगवान् केवलज्ञान होने के दो मास कम इक्कीस लाख वर्ष तक इस अवनीतल पर विचरते रहे । आपके गोशुभ आदि ७६ गणधर, ८४००० साधु, १.३००० साध्विये, १३०० चौदह पूर्वधर, ६००० अवधिज्ञानी, ६००० मनःपर्यवज्ञानी, ६५०० केवलज्ञानी, ११००० वैक्रिय लब्धि वाले, ५००० वाद-लब्धि वाले, २७९००० श्रावक और ४४८००० श्राविकाएँ हुई । मोक्ष समय निकट जान . कर भगवान् सम्मेदशिखर पर्वत पर चढ़े और एक हजार मुनियों के साथ अनशन किया। एक मास के अनशन से श्रावण-कृष्णा तृतीया के दिन धनिष्ठा नक्षत्र में चन्द्रमा के आने पर प्रभु का निर्वाण कल्याणक हुआ। प्रभु, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्दमय स्वरूप वाले परमपद को प्राप्त हुए।
भगवान् कुमार अवस्था में २१००००० वर्ष, राज्याधिपति रूप में ४२००००० वर्ष और संयम-पर्याय में २१००००० वर्ष, यों कुल ८४००००० वर्ष की कुल आयु भोग कर मोक्ष पधारे । इन्द्रों ने प्रभु का निर्वाण महोत्सव किया।
त्रिपृष्ठ की क्रूरता और मृत्यु
त्रिपृष्ठ वासुदेव ३२००० रानियों के साथ भोग भोगते हुए काल व्यतीत करने लगे। महारानी स्वयंप्रभा से 'श्रीविजय और विजय' नाम के दो पुत्र हुए । एक बार रति सागर में लीन वासुदेव के पास कुछ गायक आये, वे संगीत में निपुण थे। विविध प्रकार के श्रुति-मधुर संगीत से उन्होंने वासुदेव को मुग्ध कर लिया । वासुदेव ने उन्हें अपनी संगीत मण्डली में रख लिया। एक बार वासुदेव उन कलाकारों के सुरीले संगीत में गृद्ध हो कर शय्या में सो रहे थे। वे उनके संगीत पर अत्यंत मुग्ध थे। उन्होंने शय्यापालक को आज्ञा दी कि “मुझे नींद आते ही संगीत बन्द करवा देना ।" नरेन्द्र को नींद आ गई, किन्तु शय्यापालक ने संगीत बन्द नहीं करवाया। वह स्वयं राग में अत्यंत गृद्ध हो गया था। रातभर संगीत होता रहा । पिछली रात को जब वासुदेव की आँख खुली, तो उन्होंने शय्यापालक से पूछा ;--
" मुझे नींद आने के बाद संगीत-मण्डली को बिदा क्यों नही किया ?"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org