Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
अप्लावयति नांभोधिराश्वासयति चांबुदः । यन्महीं स प्रभावोयं ध्रुवं धर्मस्य केवलः ॥ ५ ॥ न ज्वलत्यनलस्तिर्यग् यदूर्ध्वं वाति नानिलः । अचित्य महिमा तत्र, धर्म एव निबंधनम् ॥ ६ ॥ निरालंबा निराधारा, विश्वाधारा वसुन्धरा । यच्चावतिष्ठते तत्र, धर्मादन्यन्न कारणम् ॥ ७ ॥
सूर्याचन्द्रमसावेतौ विश्वोपकृतिहेतवे ।
उदयते जगत्यस्मिन्, नूनं धर्मस्य शासनात् ॥ ८ ॥
- कल्पवृक्ष जो इच्छित फल देता है, कामधेनु जो मनोकामना पूर्ण करती है और चिन्तामणि रत्न जो सभी प्रकार की चिन्ताओं को दूर कर के वैभवशाली बनाता है, वह धर्म के फल स्वरूप ही मिलता है । अधर्मी -- पापी मनुष्यों को तो इन उत्तम वस्तुओं का दर्शन भी नहीं होता ।
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कल्पवृक्ष का योग उन भाग्यशाली मनुष्यों को मिलता है, जिनके शुभ कर्मों का उदय हो, जिनकी मनोवृत्ति प्रशस्त हो, जिनमें बुरी भावनाएँ नहीं उमड़ती हो, ऐसे युगलिक जीवों को कल्पवृक्ष का योग मिलता है । इन वृक्षों से उनकी सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है ।
कामधेनु गाय जो देवाधिष्ठित कही जाती है और चिन्तामणि रत्न भी उन्हीं भाग्यशाली को मिलता है जो धर्मसाधना कर के शुभ कर्मों का संग्रह करते हैं ।
महान् दुःखों से भरपूर ऐसे अपार संसार रूपी सागर में पड़ते हुए जीवों का, परम वत्सल एवं बान्धव के समान रक्षा करने वाला एकमात्र धर्म ही है ।
जिसमें सारा संसार डूब कर नष्ट हो सकता है, ऐसा महासागर भी पृथ्वी को नहीं डुबाता और जो मेघ, सूर्य के प्रखर ताप से तप्त बनी हुई पृथ्वी को जल-सिंचन से शीतल करके फलद्रुप बनाता है, यह भी धर्म का ही प्रभाव है । अग्नि का स्वभाव ऊर्ध्वगामी है, यह भी धर्म का प्रताप मानना चाहिए, अन्यथा वह तिरछी चाल चलने लगे, तो सभी को जला कर भस्म कर दे । जिनके पाप कर्मों का उदय होता है, वहाँ जलती हुई आग, हवा के जोर से तिरछी गति कर के गाँव के गाँव भस्म कर देती है ।
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