Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२४२
तीर्थकर चरित
षेक भी बड़े आडम्बर के साथ हो गया।
एक मास पर्यंत छद्मस्थ अवस्था में विचरने के बाद महाश्रमण श्री वासुपूज्य स्वामी, विहारगृह नामक उद्यान में (जहाँ दीक्षित हुए थे) पधारे और माघ मास की शुक्ल द्वितीया के दिन, शतभिषा नक्षत्र में, उपवास के तप से, पाटल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ रहे हुए प्रभु ने शुक्लध्यान के दूसरे चरण में प्रवेश कर के घातिकर्मों का क्षय कर दिया और केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। देवों ने समवसरण की रचना की। प्रभु ने धर्मोपदेश दिया।
धर्मदेशना धर्म-दुर्लभ भावना
इस अपार संसार रूपी समुद्र में मनुष्य-भव की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है । जिस प्रकार स्वयंभूरमण समुद्र के एक किनारे पर, पानी में डाला हुआ जूआ और दूसरे किनारे पर डाली हुई शमिला का संयोग मिलना बहुत ही कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य-भव व्यर्थ अथवा पाप सञ्चय में नहीं गँवाना चाहिए। किन्तु धर्म की आराधना कर के सार्थक करना चाहिए।
यों तो संसार में अनेक धर्म हैं, किन्तु जिनेश्वर भगवंत का बताया हुआ धर्म ही सर्व-श्रेष्ठ है । इस धर्म का अवलम्बन करने वाला, कभी संसार-सागर में नहीं डूबता, नरक निगोद में जा कर दुखी नहीं होता। यह धर्म, संयम (सभी प्रकार की अहिंसा) सत्य-वचन शौच (अचौर्य रूपी पवित्रता) ब्रह्मचर्य, निष्परिग्रहता, तप और क्षमा, मृदुता, सरलता निर्लोभता आदि दस प्रकार का कहलाता है।
धर्म के प्रभाव से कल्पवृक्षादि ऐसी वस्तुएँ प्राप्त होती है. कि जो अधर्मियों की दृष्टि में भी नहीं आती । यह धर्म, सदैव साथ रहने वाला और अत्यन्त वात्सल्यता को धारण करने वाला है। दुःख-सागर में डूबते हुए प्राणी को धर्म ही बचाता है।
धर्म के प्रभाव से समुद्र, पृथ्वी में प्रलय नहीं मचाता और वर्षा, पृथ्वी के प्राणियों के हृदय में आश्वासन एवं शान्ति उत्पन्न करती है । धर्म की शक्ति से अग्नि की लपटें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org