Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
भ० श्रेयांसनाथजी-अपशकुन
२२५
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
के कथन और सिंह के वध से मन में सन्देह भी उत्पन्न हो रहा है । इसलिए प्रभु ! इस समय सहनशील बनना ही उत्तम है । बिना विचारे अन्धाधुन्द दौड़ने से महाबली गजराज भी दलदल में गढ़ जाता है और चतुराई से खरगोश भी सफल हो जाता है । अतएव मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप इस बार संतोष धारण कर लें। यदि आप सर्वथा उपेक्षा नहीं कर सकें, तो सेना भेज दें, परन्तु आप स्वयं नहीं पधारें।
अपशकुन
महामात्य की बात अश्वग्रीव ने नहीं मानी। इतना ही नहीं, उसने वृद्ध मन्त्री का अपमान कर दिया वह आवेश में पूर्णरूप से भरा हुआ था। उसने प्रस्थान कर दिया । चलते-चलते अचानक ही उसके छत्र का दण्ड टूट गया और छत्र नीचे गिर गया। छत्र गिरने के साथ ही उसके सवारी के प्रधान गजराज का मद सूख गया। वह पेशाब करने लगा और विरस एवं रुक्षतापूर्वक चिंघाड़ता हुआ नतमस्तक हो गया। चारों ओर रजोवृष्टि होने लगी । दिन में ही नक्षत्र दिखाई देने लगे । उल्कापात होने लगा और कई प्रकार के उत्पात होने लगे। कुत्ते ऊँचा मुंह कर के रोने लगे । खरगोश प्रकट होने लगे, आकाश में चिलें चक्कर काटने लगी । काकारव होने लगा, सिर पर ही गिद्ध एकत्रित हो कर मँडराने लगे और कपोत आ कर ध्वज पर बैठ गया। इस प्रकार अश्वग्रीव को अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे । किंतु उसने इन अनिष्ट सूचक प्राकृतिक संकेतों की चाह कर उपेक्षा की और बढ़ता ही गया। कुशकुनों को देख कर उसके साथ आये हुए विद्याधरों, राजाओं और योद्धाओं के मन में भी सन्देह बैठ गया। वे भी उत्साह-रहित हो उदास मन से साथ चलने लगे और रथावर्त पर्वत के निकट पड़ाव कर दिया।
पोतनपुर में भी हलचल मच गई। युद्ध की तय्यारियाँ होने लगी। विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी ने अचल कुमार और त्रिपृष्ठकुमार से कहा;--
"आप दोनों महावीर हैं। आप से युद्ध कर के अश्वग्रीव अवश्य ही पराजित होगा । वह बल में आप में से किसी एक को भी पराजित नहीं कर सकता। किन्तु उसके पास विद्या है । वह विद्या के बल से कई प्रकार के संकट उपस्थित कर सकता है। इसलिए मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि आप भी विद्या सिद्ध कर लें। इससे अश्वग्रीव की सभी चालें व्यर्थ की जा सकेगी।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org