Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
प्रथम पराजय
दूत सरोष वहाँ से लौटा । वह शीघ्रता से अश्वग्रीव के पास आया और सारा वृत्तांत कह सुनाया । अश्वग्रीव के हृदय में ज्वाला के समान कोध भभक उठा । उसने विद्याधरों के अधिनायक से कहा;
" देखा ! ज्वलनजटी को कैसी दुर्मति उत्पन्न हुई । वह एक कीड़े के समान होते हुए भी सूर्य से टक्कर लेने को तय्यार हुआ है । वह मूर्ख शिरोमणि है । उसने न तो अपना हित देखा, न अपनी पुत्री का । उसके विनाश का समय आ गया है और प्रजापति भी मूर्ख है । कुलीनता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाला त्रिपृष्ठ नहीं जानता कि वह बाप-बेटी के भ्रष्टाचार से उत्पन्न हुआ है । यह त्रिपृष्ठ, अचल का भाई है, या भानजा (बहिन का पुत्र ) ? और अचल, प्रजापति का पुत्र है, या साला ? ये कितने निर्लज्ज हैं ? इन्हें बढ़चढ़ कर बातें करते लज्जा नहीं आती । कदाचित् इनके विनाश के दिन ही आ गये हों ? अतएव तुम सेना ले कर जाओ और उन्हें पद दलित कर दो ।"
——
विद्याधर लोग भी ज्वलनजटी पर क्रुद्ध थे वे स्वयं भी उससे युद्ध करना चाहते थे । इस उपयुक्त अवसर को पा कर वे प्रसन्न हुए और शस्त्र-सज्ज हो कर प्रस्थान कर दिया । ज्वलनजटी ने शत्रु सेना को निकट आया जान कर स्वयं रणक्षेत्र में उपस्थित हुआ । उसने प्रजापति, राजकुमार अवल और त्रिपृष्ठ को रोक दिया था। घमासान युद्ध हुआ और अंत में विद्याधरों की सेना हार कर पीछे हट गई और ज्वलनजटी की विजय हुई |
मंत्री का सत्परामर्श
अश्वग्रीव इस पराजय को सहन नहीं कर सका। वह विकराल बन गया । उसने अपने सेनापति और सामन्तों को शीघ्र ही युद्ध का डंका बजाने की आज्ञी दी । तय्यारियाँ होने लगी । एकदम युद्ध की घोषणा सुन कर महामात्य ने अश्वग्रीव से निवेदन किया;
" स्वामिन् ! आप तो सर्व-विजेता सिद्ध हो ही चुके हैं। तीन खंड के सभी राजाओं को जीत कर आपने अपने आधीन बना लिया है । इस प्रकार आपके प्रबल प्रभाव से सभी प्रभावित हैं । अब आप स्वयं एक छोटे से राजा पर चढ़ाई कर के विशेष क्या प्राप्त कर लेंगे ? आपके प्रताप में विशेषता कौन-सी आ जायगी ? यदि उस छोटे राजा का भाग्य जोर दे गया, तो आपका प्रभाव तो समूल नष्ट हो जायगा और तीन खण्ड के राज्य पर आपका स्वामित्व नहीं रह सकेगा। रण-क्षेत्र की गति विचित्र होती है। इसके अतिरिक्त भविष्यवेत्ता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org