Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
की विफलता देख कर अश्वग्रीव ने बड़ा परिघ (भाला ) ग्रहण किया और त्रिपृष्ठ पर फेंका, किंतु उसकी भी शक्ति जैसी ही दशा हुई और वह भी कौमुदी गदा के प्रहार से टुकड़े-टुकड़े हो कर बिखर गया। इसके बाद अश्वग्रीव ने घुमा कर एक गदा फेंकी, किन्तु विपृष्ठ ने आकाश में ही गदा प्रहार से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये ।
इस प्रकार अश्वग्रीव के सभी अस्त्र निष्फल हो कर चूर-चूर हो गए, तो वह हताश एवं निराश हो गया। 'अब वह क्या करे,' यह चिंता करने लगा। उसका 'नागास्त्र' की ओर ध्यान गया। उसने उसका स्मरण किया । स्मरण करते ही नागास्त्र उपस्थित हुआ। अश्वग्रीव ने उस अस्त्र को धनुष के साथ जोड़ा । तत्काल सर्प प्रकट होने लगे। जिस प्रकार बांबी में से सर्प निकलते हैं, उसी प्रकार नागास्त्र से सर्प निकल कर पृथ्वी पर दौड़ने लगे। ऊँचे फण किये हुए और फुकार करते हुए लम्बे और काले वे सर्प, बड़े भयानक लग रहे थे। पृथ्वी पर और आकाश में जहाँ देखो, वहाँ भयंकर साँप ही साँप दिखाई दे रहे थे। त्रिपृष्ठ की सेना, सर्पो के भयंकर आक्रमण को देख कर विचलित हो गई। इतने में त्रिपृष्ठ ने गरुड़ास्त्र उठा कर छोड़ा, तो उसमें से बहुत-से गरुड़ प्रकट हुए । गरुड़ों को देखते ही सर्प-सेना भाग खड़ी हुई ।
नागास्त्र की दुर्दशा देख कर अश्वग्रीव ने अग्न्यस्त्र का स्मरण किया और प्राप्त कर छोड़ा, तो उससे चारों ओर उल्कापात होने लगा और त्रिपृष्ठ की सेना चारों ओर से दावानल में घिरी हो--ऐसा दिखाई देने लगा सेना अपने को पूर्ण रूप से अग्नि से व्याप्त मान कर घबड़ा गई । सैनिक इधर-उधर दुबकने लगे । यह देख कर अश्वग्रीव की सेना के सैनिक उत्साहित हो कर हँसने लगे, उछलने और खिल्ली उड़ाने लगे तथा तालियां पीट-पीट कर जिन्हा से व्यंग बाण छोड़ने लगे। यह देख कर त्रिपृष्ठ ने रुष्ट हो कर वरुणास्त्र उठा कर छोड़ा । तत्काल आकाश मेघ से आच्छादित हो गया और वर्षा होने लगी। अश्वग्रीव की फैलाई हुई अग्नि शांत हो गई। जब अश्वग्रीव के सभी प्रयत्न व्यर्थ गये, तब उसने अपने अंतिम अस्त्र, अमोघ चक्र का स्मरण किया। सैकड़ों आरों से निकलती हुई सैकड़ों ज्वालाओं से प्रकाशित, सूर्य-मण्डल के समान दिखाई देने वाला वह चक्र, स्मरण करते ही अश्वग्रीव के सम्मुख उपस्थित हुआ । चक्र को ग्रहण कर के अश्वग्रीव ने त्रिपृष्ठ से कहा ;
"अरे, ओ त्रिपृष्ट ! तू अभी बालक है । तेरा वध करने से मुझे बाल-हत्या का पाप लगेगा इसलिए मैं कहता हूँ कि तू अब भी मेरे सामने से हट जा और युद्ध-क्षेत्र से बाहर चला जा। मेरे हृदय में रही हुई दया, तेरा वध करना नहीं चाहती। देख, मेरा
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