Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
भ० श्रेयांसनाथजी दीक्षा लेने के दो माह तक छद्मस्थ अवस्था में विचरे । फिर वे सहस्राम वन में पधारे । वहाँ वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ रहे हुए और शुक्ल ध्यान के दूसरे चरण के अन्त में वर्धमान परिणाम से रहे हुए प्रभु ने मोहनीय कर्म को समूल नष्ट कर दिया । उसके बाद एक साथ ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म को नष्ट किया । इन चारों घाती-कर्मों को नष्ट कर के माघ कृष्णा अमावस्या के दिन, चन्द्र के श्रवण नक्षत्र में आने पर, वेले के तप के साथ प्रभु को केवल ज्ञान और केवल दर्शन प्राप्ति हुई । वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो गए । इन्द्रादि देवों ने प्रभु का केवल महोत्सव किया ।
धर्मदेशना
निर्जरा भावना
भगवान् ने अपनी देशना में फरमाया कि
" स्वयंभूरमण समुद्र" सब से बड़ा है, किन्तु संसार-समुद्र तो उससे भी अधिक बड़ा है । इसमें कर्म रूपी उर्मियों के कारण जीव कभी ऊँचा उठ जाता है, तो कभी नीचे गिर जाता है और कभी तिरछा चला जाता है । कभी देव बन जाता है, कभी नारक और कभी निगोद का क्षुद्रतम प्राणी । इस प्रकार कर्म से प्रेरित जीव, विविध अवस्थाओं में परिवर्तित होता रहता है । जिस प्रकार वायु से स्वेद-बिन्दु तथा औषधी से रस झर जाता है, उसी प्रकार निर्जरा के बल से, संसार-समुद्र में डुबने के कारणभूत आठों कर्म झर जाते हैं-आत्मा से विलग हो जाते हैं । जिनमें संसार रूपी महावृक्ष के बीज भरे हुए हैं, ऐसे कर्मों का जिस शक्ति के द्वारा पृथक्करण होता है, उसे 'निर्जरा' कहते हैं ।
निर्जरा के ‘सकाम' और 'अकाम' ऐसे दो भेद हैं । जो यम-नियम के धारक हैं, उन्हें सकाम-निर्जरा होती है और अन्य प्राणियों को अकामनिर्जरा होती है । फल के समान कर्मों की परिपक्वता अपने-आप भी होती है और प्रयत्न विशेष से भी होती है । जिस प्रकार दूषित स्वर्ण, अग्नि के द्वारा शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार तप रूपी अग्नि से आत्मा के दोष दूर हो कर शुद्धि हो जाती है । यह तप दो प्रकार का है- - १ बाह्य और २ आभ्यन्तर । बाह्य तप-- १ अनशन २ ऊनोदरी ३ वृत्ति-संक्षेप ४ रस-त्याग ५ काय - क्लेश और ६ संलीनता । बाह्य तप के ये छह प्रकार हैं ।
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