Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२१२
तीर्थंकर चरित्र
अनुसार निर्णय करवा कर अपनी ही पुत्री मृगावती के साथ गन्धर्व विवाह कर लिया। राजा के इस प्रकार के अकृत्य से लोगों ने उसका दूसरा नाम 'प्रजापति' रख दिया। राजा के इस दुष्कृत्य से महारानी भद्रा बहुत ही दुःखी हुई । वह अपने पुत्र 'अचल' को लेकर दक्षिण देश में चली गई । अचलकुमार ने दक्षिण में अपनी माता के लिए ' माहेश्वरी ' नामकी नगरी बसाई । उस नगरी को धन-धान्यादि से परिपूर्ण और योग्य अधिकारियों के संरक्षण में छोड़ कर राजकुमार अचल, पोतनपुर नगर में अपने पिता की सेवा में आ गया । राजा ने अपनी पुत्री मृगावती के साथ लग्न कर के उसे पटरानी के पद पर प्रतिष्ठित कर दी और उसके साथ भोग भोगने लगा । कालान्तर में विश्वभूति मुनि का जीव, महाशुक्र देवलोक से च्यव कर मृगावती की कुक्षि में आया । पिछली रात को मृगावती देवी ने सात महास्वप्न देखे | यथा--१ केसरीसिंह २ लक्ष्मीदेवी ३ सूर्य ४ कुंभ ५ समुद्र ६ रत्नों का ढेर और ७ निर्धूम अग्नि । इन सातों स्वप्नों के फल का निर्णय करते हुए स्वप्न पाठकों ने कहा- 'देवी के गर्भ में एक ऐसा जीव आया है, जो भविष्य में 'वासुदेव' पद को धारण कर के तीन खण्ड का स्वामी --अर्द्ध चक्री होगा ।" यथा समय पुत्र का जन्म हुआ। बालक की पीठ पर तीन बाँस का चिन्ह देख कर 'त्रिपृष्ट' नाम दिया । बालक दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा । बड़े भाई 'अचल' के ऊपर उसका स्नेह अधिक था । वह विशेषकर अचल के साथ ही रहता और खेलता । योग्य वय पा कर कला कौशल में शीघ्र ही निपुण हो गया । युवावस्था में पहुँच कर तो वह अचल के समान - - मित्र के समान दिखाई देने लगा । दोनों भाई महान् योद्धा, प्रचण्ड पराक्रमी, निर्भीक और वीर शिरोमणि थे । वे दुष्ट एवं शत्रु को दमन करने तथा शरणागत का रक्षण करने में तत्पर रहते थे। दोनों बन्धुओं में इतना स्नेह था कि एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता था । इस प्रकार दोनों का सुखमय काल व्यतीत हो रहा था ।
रत्नपुर नगर में मयुरग्रीव नाम का राजा था । नीलांगना उसकी रानी थी । 'अश्वग्रीव' नाम का उसके पुत्र था । वह भी महान् योद्धा और वीर था । उसकी शक्ति भी त्रिपृष्ट कुमार के लगभग मानी जाती थी। उसके पास 'चक्र' जैसा अमोघ एवं सर्वोत्तम शस्त्र था । वह युद्धप्रिय और महान् साहसी था । उसने पराक्रम से भरत क्षेत्र के तीन खण्डों पर विजय प्राप्त कर ली और उन्हें अपने अधिकार में कर लिया । सोलह हजार
* वासुदेव जैसे श्लाघनीय पुरुष की उत्पत्ति, पिता-पुत्री के एकांत निन्दनीय संयोग से हो, यह अत्यन्त ही अशोभनीय है और मानने में हिचक होती है। किन्तु कर्म की गति भी विचित्र है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org