Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० शीतलनाथजी
पुष्करवर द्वीपार्द्ध के पूर्व महाविदेह के वज्र नाम के विजय में सुसीमा नाम की नगरी थी। पद्मोत्तर नाम के नरेश वहाँ के स्वामी थे। उन्होंने संसार से विरक्त हो कर त्रिस्ताध नाम के आचार्य के समीप दीक्षा अंगीकार की और चारित्र की आराधना करते हए तीर्थंकर नाम-कर्म का उपार्जन किया। आयुष्य पूर्ण कर प्राणत नाम के दसवें स्वर्ग में देव रूप में उत्पन्न हुए।
इस जम्बूद्वीप के भरत-क्षेत्र में भद्दिलपुर' नगर था । 'दृढ़रथ' नाम के महाराज वहाँ के शासक थे । उनकी महारानी का नाम 'नंदादेवी' था। पद्मोत्तर मुनिराज का जीव, प्राणत देवलोक का बीस सागरोपम प्रमाण आयुष्य पूर्ण कर के वैशाख-कृष्णा छठ को पूर्वाषाढा नक्षत्र में नन्दादेवी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। माघ-कृष्णा द्वादशी को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में उनका जन्म हुआ। गर्भकाल में महाराजा का शरीर किसी रोग के कारण तप्त हो गया था, किन्तु महारानी के स्पर्श से सारी तपन मिट कर शीतलता व्याप गई। इसे गर्भस्थ जीव का प्रभाव मान कर पुत्र का नाम 'शीतलनाथ ' रखा गया । यौवनवय में कुमार का विवाह किया गया। श्री शीतलनाथजी पच्चीस हजार पूर्व तक कुमार अवस्था में रहे । महाराजा दृढ़रथ ने अपना राज्य-भार शीतलनाथजी को दिया । आपने पचास हजार पूर्व तक राज्य-भार वहन किया। इसके बाद माघ-कृष्णा द्वादशी को पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ संसार का त्याग कर के संयम साधना में तत्पर हो गए । तीन महीने तक प्रभ छद्मस्थ रह कर चारित्र का विशुद्ध रीति से पालन करते रहे । पौष मास के
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