Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ, पद्मप्रभःत्री---धर्मदेशना
कि जैसी किसी मनुष्य को अग्नि से जलने पर होती है । उस घबराहट को मिटाने में न तो वे विमान सहायक हो सकते हैं, न वापिका और नन्दनवन आदि ही। उन्हें कहीं भी शांति नहीं मिलती। उस समय वे विलाप करते हैं और कहते हैं कि
" हा, मेरी प्राणप्रिय देवांगना ! हाय मेरे विमान ! हाय कल्पवृक्ष ! हाय मेरी पुष्करणी वापिका ! हाय, मैं इनसे बिछुड़ जाऊँगा । फिर इन्हें कब देख मर्कंगा।।
हाय ! अमृत की बेल के समान और अमृतमय वाणी से आनन्दित करने वाली मेरी कान्ता, रत्न के स्तंभ वाले विमान, मणिमय भूमि और रत्नमय वेदिकाएँ, अब तुम किसकी हो कर रहोगी ?
हे रत्नमय पद-पंक्ति युक्त एवं श्रेणि-बन्ध कमल वाली पूर्ण वापिकाओं ! अब तुम्हारा उपभोग कौन करेगा? हे पारिजात, सतान, हरिचन्दन और कल्पवृक्ष ! क्या तुम अपने इस स्वामी को त्याग दोगे ?
अरे, क्या स्त्री के गर्भ रूपी नर्क में मुझे बरबस रहना पड़ेगा ? और अशुचि रस का आस्वादन करते हुए उसी से शरीर बनाना होगा ?
हा, अपने कर्मों के बन्धन में जकड़ा हुआ मुझे जठराग्नि रूपी अँगीठी में पकने रूप दुःख भी सहन करना पड़ेगा। हाय, कहाँ तो रति-सुख की खान ऐसी ये मेरी देवांगनाएँ और कहाँ अशुचि की खान एवं बीभत्स ऐसी मानवी स्त्रियों का भोग ?''
___इस प्रकार स्वर्गीय सुखों का स्मरण करते हुए देवता, उस प्रकार वहां से च्यव जाते हैं, जिस प्रकार दीपक बुझ जाता है। इस प्रकार देवगति भी दुःख रूप है । इसलिए बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि इस संसार को असार जान कर दीक्षा रूपी उपाय के द्वारा संसार का अन्त कर के मुक्ति को प्राप्त करे।
श्रोत्रियः श्वपचः स्वामी, पतिर्ब्रह्मा कृमिश्च सः । संसारनाटये नटवत, संसारी हंत चेष्टते ॥१॥ न याति कतमां योनि कतमा वा न मुंचति । संसारो कर्मसंबंधादवक्रयकुटीमिव ॥२॥ समस्तलोकाकाशेऽपि, नानारूपैः स्वकर्मभिः ।।
बालाग्रमपि तन्नास्ति, यन्नस्पृष्ट शरीरिभिः ॥३॥ --इस संसार की अनेक योनियों में परिभ्रमण करने रूप नाटक में संसारस्थ जीव नट के समान चेष्टा करते रहते हैं । ऐसी संसार रूपी रंगभूमि पर वेद-वेदांग का पारगामी
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