Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० अभिनन्दनजी
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MARAAN
जम्बूद्वीप के पूर्व-विदेह में ‘मंगलावती' नाम का एक विजय है, उसमें 'रत्नसंचया' नाम की नगरी थी । 'महाबल' नाम का महा पराक्रमी राजा वहाँ राज करता था। वह बल और पराक्रम से भरपूर था और दृष्टि, विवेक तथा आत्म-जाग्रति से भी भरपूर था। दान, शील, तप और भाव में वह सदा तत्पर रहता था। कालान्तर में राजा, संसार का त्याग कर, महामुनि विमलचन्द्रजी के सर्वत्यागी निग्रंथ शिष्य बन गये और निग्रंथ धर्म की साधना करने हुए आत्मा की उन्नति करने लगे। उनकी मनोवृत्ति संसार से एकदम विपरीत थी। यदि कोई उनका आदर-सत्कार करता, तो वे खेदित हो कर विचार करते कि "मुझ जैसे साधारण जीव में सन्मान के योग्य ऐसा है ही क्या ? मैं अयोग्य हूँ, फिर भी ये मेरा आदर करते हैं-यह मेरे लिए लज्जा की बात है।" यदि कोई उनका तिरस्कार करता, कष्ट पहुँचाता, तो वे प्रसन्न होते और सोचते--"ये मेरे हितैषी हैं । साधना में सहायक बन रहे हैं । ऐसे अवसर ही साधना में विशेष सहयोगी होते हैं।" उन्होंने उग्र तप आदि से तीर्थंकर नाम-कर्म निकाचित किया और दीर्घ काल तक संयम पाल कर 'विजय' नाम के अनुत्तर विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए।
इस भरत-क्षेत्र में 'अयोध्या' नाम की नगरी थी। उसमें संवर' नाम का राजा राज करता था। उसकी रानी का नाम 'सिद्धार्था' था। विजयविमान की उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम प्रमाण आयु पूर्ण कर, महाबल मुनि का जीव रानी की कुक्षि से उत्पन्न हुआ। माता ने चौदह स्वप्न देखे । माघ-शुक्ला द्वितीया को जन्म हुआ। जन्मोत्सव आदि हुए।
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