Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० अभिनन्दनजी- धर्मदेशना
मनुष्य के भयंकर रोगों को दूर करने की शक्ति धराने वाले, अष्टांग आयुर्वेद, संजीवनी औषधियें और महामृत्युंजयादि मन्त्र भी मृत्यु से नहीं छुड़ा सकते । चारों ओर शस्त्रास्त्रों की बाड़ लगा दी गई हो और योद्धाओं की सेना, तत्परता के साथ अपने महाराजाधिराज की रक्षा के लिए जी-जान से जुट गई हो, ऐसे सुदृढ़ प्रबन्ध की भी उपेक्षा कर के विकराल काल, आत्मा को पकड़ कर ले जाता है और सारी व्यवस्था व्यर्थ हो जाती है ।
जिस प्रकार पशु-वर्ग, मृत्यु से बचने का उपाय नहीं जानता, उसी प्रकार महान् बुद्धि का धनी मनुष्य वर्ग भी नहीं जानता । यह कैसी मूर्खता है ? जो एक खड्ग के साधन मात्र से पृथ्वी को निष्कंटक करने की शक्ति रखते हैं, वे भी यमराज की भृकुटी से भयभीत हो कर दसों अंगुलियें मुँह में रखते हैं । यह कैसी विचित्र बात है ?
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पाप का सर्वथा त्याग कर के जिन्होंने निष्पाप जीवन अपनाया, ऐसे मुनियों के, तलवार की धार पर चलने जैसे महान् व्रत भी मृत्यु को नहीं टाल सके, तो शरण-रहित, पालक एवं नायक से रहित और निरुपाय ऐसा यह संसार, यमराज (मृत्यु) रूपी राक्षस के द्वारा भक्षण होते हुए कैसे बच सकता है ? एक धर्म रूपी उपाय, जन्म को तो नष्ट कर सकता है, परन्तु मृत्यु को नहीं रोक सकता । जन्म की जड़ को नष्ट करने के बाद भी प्राप्त जन्म से तो मरण होता ही है । किन्तु वह मरण, अन्तिम होता है । इसके साथ ही आत्मा स्वयं मृत्युंजय बन जाता है। मौत की जड़, जन्म के साथ ही लगी हुई है । यदि जन्म होना रुक जाय, तो मृत्यु अपने-आप रुक जाती है । आयुष्य के बन्ध के साथ ही अन्त निश्चित हो जाता है, इसलिए धर्म रूपी शुभ उपाय अवश्य करना चाहिए। जिससे मृत्यु हो, तो भी दुर्गति नहीं हो कर शुभ-गति हो ।
मृत्युंजय बनने के लिए प्रत्येक आत्मार्थी को निर्ग्रथ प्रव्रज्या रूपी प्रबल उपाय कर के, अक्षय सुख के भण्डार ऐसे मोक्ष को प्राप्त करना चाहिए । इस महा उपाय से वह स्वयं अपना रक्षक बन जाता है और दूसरों के लिए भी अपना आदर्श रख कर शरणभूत बनता है ।
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'इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते यन्मृत्योर्यंति गोचरं । अहो तदंतकातंके कः शरीरिणां ॥ १ ॥ पितुर्मातुः स्वसुर्भ्रातुस्तनयानां च पश्यतां । अत्राणो नीयते जंतुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥ २ ॥ शोचंते स्वजनानंतं मीयमानान् स्वकर्मभिः । नेष्यमाणं तु शोचंति नात्मानं मूढबुद्धयः ॥ ३॥ संसारे दुःखदावाग्निज्वलज्ज्वालाकरालिते । वने मृगार्भकस्येव शरणं नास्ति देहिनः ||४|| "
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