Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
' भ० संभवनाथजी--धर्मदेशना
भगवान् का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ला १४ को हुआ। प्रभु का शरीर चार सौ धनुष ऊँचा था। युवावस्था में लग्न हुए। पन्द्रह लाख पूर्व तक कुमार, युवराज पद पर रहे। पिता ने प्रभु को राज्याधिकार दे कर प्रव्रज्या ले ली। प्रभु ने चार पूर्वांग और ४४ लाख पूर्व की उम्र होने पर वर्षीदान दे कर मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा को प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। प्रभु चौदह वर्ष तक छद्मस्थ रहे । कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन बेले के तप युक्त प्रभु के घातिकर्म नष्ट हो गए और केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हो गया। प्रभु ने चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की।
धर्मदेशना अनित्य भावना
" इस संसार में सभी वस्तुएँ अनित्य-नाशवान् हैं, फिर भी उनकी प्राथमिक मधुरता के कारण जीव उन वस्तुओं में मूच्छित हो रहे हैं । संसार में जीवों को अपने आप से, दूसरों की ओर से और चारों ओर से विपत्ति आती रहती है। जीव, यमराज के दाँत रूप काल के जबड़े में रहे हुए, कितने कष्ट से जी रहे हैं, फिर भी नहीं समझते।
अनित्यता, वज्र जैसे दृढ़ और कठोर देह को भी जर्जरित कर के नष्ट कर देती है, सब कदली के गर्भ के समान कोमल देह का तो कहना ही क्या है ? यदि कोई व्यक्ति इस निःसार एवं नाशवान् शरीर को स्थिर करना चाहे, तो उसका प्रयत्न सड़े हुए घास से बनाये हुए नकली मनुष्य के जैसा है, जो हवा और वर्षा के वेग से नष्ट हो जाता है । काल रूपी सिंह के मुख के समान गुफा में रहने वाले प्राणियों की रक्षा कौन कर सकता है ? मन्त्र-तन्त्र, औषधी, देव-दानव आदि सभी शक्तियाँ काल के सामने निष्क्रिय है-विवश है । मनुष्य ज्यों-ज्यों आयु से बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसे जरावस्था (बुढ़ापा)घेरती रहती है और उसके लिए मौत की तय्यारी होती रहती है । अहो ! प्राणियों के जन्म को धिक्कार है । जिस जन्म के साथ ही मृत्यु का महा भय लगा हुआ है, वह प्रशंसनीय नहीं होता।"
“मेरा शरीर कालरूपी विकराल यमराज के अधीन रहा हुआ है। न जाने कब वह इसे नष्ट कर दे"--इस प्रकार समझ लेने पर किसी भी प्राणी को खान-पान में आनन्द नहीं रहता, फिर पाप-कर्म में तो रुचि हो ही कैसे ? जिस प्रकार पानी में परपोटा उत्पन्न
* खेती की रक्षा के हेतु पशु-पक्षी को डराने के लिए, किसान लोग ऐसा नकली मनुष्य बनाते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org