Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१५४
तीर्थंकर चरित्र
"भाई ! मैने जो कुछ कहा, वह सत्य है । यह सारी सभा इसकी साक्षी है । अब मैं तुम्हारी स्त्री को कहाँ से लाऊँ"--राजा अपनी विवशता बतलाने लगा।
- "राजन् ! क्या आप झूठ भी बोलने लग गये । मुझ जीते-जागते को मरा हुआ बता कर, मेरी स्त्री को दबाना चाहते हैं ? किन्तु ऐसा नहीं हो सकेगा। आप मेरी स्त्री को नहीं छुपा सकेंगे । आपका पाप खुला हो चुका है । देखिए, आपके पीछे वह कौन बैठी है। इस प्रत्यक्ष सत्य को भी नहीं मानेंगे आप ?"
राजा ने अपने पीछे देखा, तो वही स्त्री, उसी रूप में साक्षात् बैठी दिखाई दी। राजा को लगा कि वह कलंकित हुआ है। उस पर पराई स्त्री को दबाने का दोष लगा है। चिन्ता से उसका चेहरा म्लान हो गया। यह देख कर वह मायावी पुरुष हाथ जोड़ कर बोला--
___ "महाराज ! मैं वही पुरुष हूँ जिसे कुछ दिन पूर्व आपने निराश कर लौटा दिया था। किन्तु मैं बड़े परिश्रम से प्राप्त अपनी विद्या का चमत्कार आपको दिखाना चाहता था। इसलिए यह सारा मायाजाल मैने खड़ा किया और आपको अपनी कला दिखा कर कृतार्थ हुआ हूँ। अब आज्ञा दीजिए, मैं अपने स्थान जाता हूँ।"
राजा ने उसे पारितोषिक दे कर बिदा किया और स्वयं ने विचार किया कि जिस प्रकार मायावी का मायाजाल व्यर्थ है, उसी प्रकार यह संसार भी निःसार एवं नाशवान् है। इस प्रकार चिन्तन करता हुआ राजा, संसार से विरक्त हो कर प्रवजित हो गया।
मन्त्री ने चक्रवर्ती महाराज सगर को उपरोक्त कथा सुना कर कहा--
" महाराज ! यह संसार उस माया-प्रयोग के समान है। इसलिए आप शोक का त्याग कर के धर्म की आराधना करने में तत्पर बनें ।"
सगर चक्रवती की दीक्षा
इस प्रकार दोनों मन्त्रियों के वचन सुन कर चक्रवर्ती महाराज को भव-निर्वेद (वैराग्य) उत्पन्न हो गया । वे मन्त्रियों से कहने लगे;--
"तुमने मुझे अच्छा उपदेश दिया । जीव अपने कर्मानुसार ही जन्म लेता है, जीता है और मरता है । इस विषय में बालक, युवक और वृद्ध का कोई विचार या निर्धारित परिमाण नहीं होता । माता, पिता और बान्धवादि का संगम स्वप्नवत् है । संपत्ति, हाथी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org