Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ. अजितनाथजी-सगर चक्रवर्ती की दीक्षा
के कान के समान चंचल है । यौवन और लक्ष्मी, बरसाती नाले के समान बह जाने वाले हैं । जीवन, घास के अग्रभाग पर रहे हुए जलबिन्दु तुल्य है । वृद्धावस्था, आयुष्य का अंत करने वाली राक्षसी के समान है। जब तक वृद्धावस्था नहीं आती और इन्द्रियाँ विकल नहीं होती, तब तक सामर्थ्य रहते ही संसार का त्याग कर के निग्रंथ-प्रव्रज्या धारण कर, आत्महित साध लेना ही श्रेयस्कर है। जो मनुष्य, इस असार संसार का त्याग कर के मोक्ष प्राप्ति के पुरुषार्थ में पराक्रमी बनता है, वह इस नश्वर शरीर रूपी तुच्छ कंकर से, शाश्वत सुख रूपी महान् रत्न का महालाभ प्राप्त करता है।"
राजाधिराज सगर इस प्रकार संसार की असारता बता कर आत्म-कल्याण के लिए प्रव्रजित होने का मनोभाव व्यक्त करने लगे । वे विरक्त हो गए । संसार में रहना अब उन्हें नहीं सुहाता था । उनका वैराग्य भाव वर्द्धमान हो रहा था + । उन्होंने अपने
___ + ग्रंथकार बतलाते हैं कि चक्रवर्ती महाराजा के सामने अष्टापद पर्वत के समीप रहने वाले बहत-से लोगों का एक झंड आया और आर्त स्वर में चिल्लाया-"महाराज ! हमारी रक्षा कीजिए। हम दुःखी हो गए हैं।'' उन्होंने आगे कहा-"आपके पुत्रों ने अष्टापद पर्वत के समीप जो खाई खोद कर गंगा के जल से भरी, वह जल हमारा सर्वनाश कर रहा है। खाई भर जाने के बाद सारा जल हमारे प्रदेश में फैल गया और आस-पास के गाँवों को डूबा कर नष्ट करने लगा। हम सभी जीवन बचाने के लिए वहां से भाग निकले। हमारे घर, सम्पत्ति और सभी साधन नष्ट हो रहे हैं। हमारी रक्षा करिये कृपालु ! अव हम क्या करें ? कहाँ रहें ?" ग्राम्यजनों की करुण कहानी सुन कर सम्राट को खेद हुआ । उन्होंने अपने पौत्र भगीरथ को बुलाया ओर कहा-" वत्स ! तुम जाओ ओर दण्ड-रत्न से गंगा के प्रवाह को आकर्षित कर के पूर्व के समद्र में मिला दो । जब तक पानी को रास्ता नहीं बताया जाता, तब तक वह अन्धे के समान इधर-उधर भटक कर जीवों के लिए दु:खदायक बनता रहता है । जाओ, शीघ्र जाओ और इन दुखियों का दुःख दूर करो।" भगीरथ गया। उसने तेले का तप कर के ज्वलप्रभः' नामक नागकुमारों के अधिपति का आराधन किया और उसकी आज्ञा ले कर दण्ड-रत्न के प्रयोग से गंगा के लिए मार्ग करता हआ चला । आगे-आगे भगीरथ ओर पीछे बहती हुई गंगा । वह कुरुदेश के मध्य में से ले कर हस्तिनापुर के दक्षिण से, कोशलदेश के पश्चिम से, प्रयाग के उत्तर से, काशी के दक्षिण में, विंध्याचल के दक्षिण में और अंग तथा मगध देश के उत्तर की ओर हो कर गंगा को ले चला। मार्ग में आती हई छोटी बड़ी नदियाँ भी उसमें मिलती गई । अंत में उसे पूर्व के समुद्र में मिला दी गई। उसी समय से वहाँ गंगासागर' नामक तीर्थ हआ। भगीरथ के द्वारा खिची जाने के कारण गंगा का तीसरा नाम 'भागीरथी' हुआ।
गंगा को समुद्र की ओर लाते हुए मार्ग में सर्यों के निवास-स्थान टूटे, उन्हें त्रास हुआ। वहाँ भगीरथ ने नागदेव को बलिदान दिया। भगीरथ ने ज्वलनप्रभः के कोप से भस्म हए सगरपूत्रों की
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