Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
_हठात् आकाश में घोर गर्जना हुई । सिंहनाद हुआ। तलवार और भाले की टक्कर की आवाजें आने लगी । “ मैं तुझे आज यमधाम पहुँचा कर ही रहूँगा। ठहर, जाता कहाँ है ? आज तेरे जीवन का अंतिम क्षण है," इत्यादि आवाजें आने लगी। नरेश एवं सभासद् सभी अपने स्थान से उठ कर आकाश की ओर देखने लगे । इतने में उनके सामने एक कटा हुआ मानव हाथ, आकाश से आ कर गिरा । हाथ को देखते ही वह स्त्री चौंकी और रोने लगी। इतने में एक कटा हुआ पाँव आ कर गिरा । यह देख कर रोती हुई वह बोली-“यह हाथ
और पाँव तो मेरे पति के ही हैं।" इसके बाद दूसरा हाथ, दूसरा पाँव, मस्तक और धड़ कटे हुए गिरे । स्त्री करुण क्रन्दन करती हुई कहने लगी -
"मेरा सर्वनाश हो चुका । उस दुष्ट ने मेरे पति को मार डाला। यह उन्हीं के अंग हैं । अब मैं जीवित नहीं रह सकती । मैं भी अब पति के साथ ही परलोक जाना चाहती हूँ । महाराज ! शीघ्रता कीजिए। मुझे पतिधाम जाने के लिए आज्ञा दीजिए। चितारूपी शीघ्र-गति वाला वाहन बनाइए। मैं उस पर आरूढ़ हो कर जाना चाहती हूँ।"
___ --'हे पति-परायणा पुत्री ! धैर्य धर । विद्याधरी लीला में अनेक प्रकार की मायावी रचना हो सकती है । कदाचित् उस दुष्ट लम्पट ने निराश हो कर तुझे भ्रमजाल में फंसाने के लिए यह सभी प्रपञ्च किया हो । इसलिए शान्ति धारण कर और थोड़ी देर प्रतिक्षा कर"- राजा ने सान्त्वना देते हुए कहा।
--"नहीं, महाराज ! यह मेरा पति ही है । मैं पूर्णरूप से पहिचानती हूँ । इसमें किसी प्रकार का भ्रम अथवा धोखा नहीं है । मैं अब क्ष गभर भी जीवित रहना नहीं चाहती। अब मेरा जीवित रहना मेरे पितृकुल एवं पतिकुल के लिए शोभनीय नहीं है । इसलिए अपने सेवकों को आज्ञा दे कर मेरे लिए शीघ्र ही विता रचाइए"--उस स्त्री ने कहा ।
--" बहिन ! तेरे दुःख को मैं जानता हूँ। फिर भी मेरा आग्रह है कि तू थोड़ा धीरज रख । बिना विचारे एकदम साहस कर डालना अच्छा नहीं होता। जो विद्याधर हैं, आकाश में उड़ सकते हैं, वे विविध प्रकार के.भ्रम की सृष्टि भी कर सकते हैं । कौन जाने यह भी कोई छल हो"--राजा ने सन्देह व्यक्त किया।
राजा की बात सुनते ही सुन्दरी क्रोधित हो कर बोली-- __ --"राजन् ! आप मुझे क्यों रोकते हैं ? आपका ‘परस्त्री-सहोदर' विरुद वास्तविक है या मात्र भुलावा देने के लिए ही है ? यदि वास्तव में आपकी दृष्टि शुद्ध है, तो कृपा कर शीघ्रता करिये और अपनी धर्मपुत्री को अपने कर्तव्य-मार्ग पर चलने दीजिए। में अब एक पल के लिए भी रुकना नहीं चाहती।"
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