Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
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शशि ने आवली को मार डाला। भव-भ्रमण करते हुए शशि तो मेघवाहन हुआ और आवली सहस्रलोचन हुआ। रम्भक सन्यासी का जीव-तुम दान के प्रभाव से शुभ गतियों में होते हुए चक्रवर्ती हुए । सहस्रलोचन के प्रति तुम्हारा स्नेह पूर्वभव ही है ।"
राक्षस वंश
धर्म-सभा में उस समय भीम' नामक राक्षसाधिपति भी बैठा था। उसने मेघवाहन को देख कर स्नेहपूर्वक छाती से लगाया और बोला
"वत्स! मैं पूर्वभव में पुष्करवर द्वीप के भरत-क्षेत्र में, वैताढ्य पर्वत पर के कांचनपुर नगर का राजा था। मेरा नाम विद्युदंष्ट्र था और तू मेरा रतिवल्लभ नाम का पुत्र था। तू मुझे बहुत ही प्रिय था । आज तू मुझे मिल गया। यह अच्छा ही हुआ । मैं अब भी तुझे अपना प्रिय पुत्र मानता हूँ। अब तू मेरे साथ चल । मेरे सर्वस्व का तू अधिकारी है । लवण समुद्र में सात सौ योजन वाला, सभी दिशाओं में फैला हुआ एक 'राक्षस द्वीप' है। उसके मध्य में त्रिकूट नाम का वलयाकार पर्वत है। वह नौ योजन ऊँचा, पचास योजन विस्तार वाला और बड़ा ही दुर्गम है । उस पर्वत पर 'लंका' नाम की नगरी है । वह स्वर्णमय गढ़ से सुरक्षित है । मैने ही यह नगरी बसाई है। उसके छ: योजन पृथ्वी में नीचे 'पाताल लंका' नामकी अति प्राचीन नगरी हैं, जो स्फटिक रत्न के गढ़ और आवास आदि से सुशोभित है। इन दोनों नगरियों का स्वामी मैं ही हूँ। हे पुत्र ! मैं इन दोत्रों नगरियों का स्वामित्व तुझे देता हूँ। तू इन पर राज्य कर । तीर्थंकर भगवान के दर्शन का तुझे यह अचिन्त्य लाभ मिल गया हैं।"
इस प्रकार कह कर राक्षसाधिपति ने अपनी नौ मणियों वाला बड़ा हार और राक्षसी विद्या मेघवान को वहीं देदी । मेघवाहन भगवान् को वन्दना कर के राक्षस द्वीप में आया और दोनों लंका नगरियों पर शासन करने लगा। राक्षस द्वीप का राज्य और राक्षसी विद्या के कारण मेघवाहन का वंश 'राक्षसवंश' कहलाया।
पुत्रों का सामूहिक मरण चक्रवर्ती सम्राट के साठ हजार पुत्र विदेश भ्रमण के लिए गये थे। सामुदानिक
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