Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० ऋषभदेवजी x कुलकरों की उत्पत्ति - सागरचन्द्र का साहस
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और बोली -
"राधम ! तेरे मन में एसे विचार ही कैसे उत्पन्न हुए ? दुष्ट ! क्या इसीलिए तू मेरे पुण्यात्मा पति पर कलंक लगाता है ? चल निकल यहाँ से । खबरदार अब कभी इधर आया तो।'
___अशोकदत्त निराश और अपमानित हो कर चला गया। उसने सोचा--"जब मित्र यह बात जानेगा, तो क्या समझेगा?' उसने सागरचंद्र को भरमाने के लिए जाल रचा। वह प्रियदर्शना के पास से अपने घर जा रहा था, तो रास्ते में सागरचंद्र आता हुआ दिखाई दिया। वह उदास मुँह लिए सागरचंद्र के सामने आया। सागरचंद्र ने उदासी का कारण पूछा तो पहले तो वह मौन ही रहा । विशेष आग्रह करने पर बोला--
“मित्र ! कहने जैसी बात नहीं है। मैं क्या कहूँ तुम्हें ? मत पूछो और मुझे मेरे भाग्य पर ही छोड़ दो।"
सागरचंद्र आश्चर्य व्यक्त करता हुआ बोला--"क्या मुझ से भी छिपाने जैसी बात है ?"
" नहीं मित्र ! मेरे मन में तुम से छिराने जैसी बात कभी नहीं हो सकती । किंतु तुम्हारे हित के लिए मैं यह बात तुमसे छिपाना चाहता हूँ। मैं तुम्हारे जीवन में कलह की आग लगाना नहीं चाहता । तुम मत पूछो मित्र ! मत पूछो । मत पूछो ।” अशोकदत्त का कंठ अवरुद्ध हो गया। उसकी आँखों से आँसू निकल पड़ । यह देख कर सागरचंद्र घबराया । उसने आग्रह के साथ पूछा--
'' तुम्हें कहना ही पड़ेगा। यों भी तुम्हारा दुःख देख कर मैं दुखी हो रहा हूँ, तब बात सुनने से विशेष क्या होगा ? तुम अभी कहो । विलम्ब मत करो।"
“मित्र ! कैसे कहूँ। मुंह नहीं खुलता । हृदय स्वीकार नहीं करता।" "तो भी कहो। देर क्यों कर रहे हो।"
"मित्र ! ज्ञानियों ने कहा है कि “ स्त्री माया की पुतली है। उसके अंग-प्रत्यंग में माया, वञ्चना और वासना भरी रहती है। वह कभी विश्वास के योग्य नहीं हो सकती। यह मैने आज समझा है। तुम्हारी प्राणप्रिया श्रीमती प्रियदर्शना, कामान्ध बन कर मेरे गले लिपट गई । मैं तो तुम से मिलने गया था । यदि मुझे ऐसा मालूम होता, तो मैं वहाँ जाता ही नहीं । कदाचित् पहले से वह मुझ पर आसक्त थी । एकान्त देख कर लिपट गई । मैं स्तंभित रह गया और उसे दूर हटा कर भाग निकला। अभी वहीं से चला आ रहा हूँ। यह है मेरे दुःख का सत्य कारण ।"
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