Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० ऋषभ देवजी-वीदान
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परम सुख का मार्ग खोलें।"
___ इस प्रकार निवेदन कर के लोकान्तिक देव, स्वर्ग में गये और प्रभु अभिनिष्क्रमण की इच्छा करते हुए भवन में पधारे ।
वर्षीदान
संसार से विरक्त बने हुए श्री आदिनाथजी ने अपने सामन्तों और भरतादि पुत्रों को बुलाया और सभी के सामने संसार-त्याग की भावना व्यक्त करते हुए कहा
" मैं अब इस राज्य और परिवार को त्याग कर निग्रंथ बनना चाहता हूँ । अब आप अपनी व्यवस्था संभालें। मनुष्य को संसार में ही नहीं फंसा रहना चाहिए। उसे जीवन में उस महान् कर्तव्य का भी पालन करना चाहिए जिससे जन्म-मरण का अनादि से लगा हुआ दुःख मिट कर शाश्वत एवं अव्याबाध सुख की प्राप्ति हो । मैं इसी कर्तव्य का पालन करने के लिए, आप सभी को छोड़ कर प्रत्रजित होऊँगा। आप भी इस ध्येय को दृष्टि में रखें और जब तक वैसी तय्यारी नहीं हो, तब तक उत्तरदायित्व को भली प्रकार से निभाते रहें।
प्रभु ने राजकुमार भरत को सम्बोधित करते हुए कहा
"पुत्र ! तू इस राज्य को संभाल । मैं तो अब संयम रूपी राज्य ग्रहण करूँगा। इस राज्य में अब मेरी रुचि नहीं रहीं।"
__ भरत हाथ जोड़ कर विनयपूर्वक कहने लगे-" स्वामिन् ! आप के चरण-कमल की सेवा में होने वाले सुख-सागर को छोड़ कर राज्य की झंझट में पड़ने की मेरी इच्छा नहीं है। मैं तो श्रीचरणों की छत्र-छाया में ही परम सुख का अनुभव कर रहा हूँ। आप मझे इस सुख से वञ्चित नहीं करें।"
" भरत ! तुम्हें समझना चाहिए । मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे रोकना मेरे हित में नहीं होगा । तुमको मेरी इच्छा का आदर कर के मुझे आत्मिक राज्य प्राप्त करने में सहायक बनना चाहिए और यह राज्य-भार ग्रहण करना चाहिए। यदि राज्य-व्यवस्था नहीं संभाली जाय, तो मच्छगलागल' चल जाय (बड़ा मच्छ, छोटे मच्छ को निगल जाता है, इसी प्रकार शक्तिशाली, गरीब को लूट ले) । इसलिए तुम इस राज्य-भार को ग्रहण करो और इसका भली प्रकार से पालन करो।"
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