Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
समवसरण की रचना
भगवान् को केवलज्ञान - केवलदर्शन उत्पन्न होते ही देवलोक के इन्द्रों के आसन कम्पायमान हुए । इन्द्रों ने अपने अवधिज्ञान के उपयोग से जिनेश्वर भगवंत को केवलज्ञान होना जाना और वे सभी अपनी ऋद्धि के साथ केवल महोत्सव करने के लिए आए ।
1
आचार्य लिखते हैं कि इस बार सौधर्मेन्द्र की सवारी में 'ऐरावण' नाम का गजराज था । ऐरावण नाम का देव ही हाथी बना - पर्वत के समान विशाल और श्वेत वर्ण वाला । उसके आठ मुँह । प्रत्येक मुँह पर आठ लम्बे विस्तृत और कुछ टेढ़े दाँत थे प्रत्येक दाँत पर स्वच्छ और सुस्वादु जल से भरी हुई एक-एक पुष्करिणी ( बावड़ी ) थी । प्रत्येक पुष्करिणी में आठ-आठ कमल थे । प्रत्येक कमल के आठ-आठ पत्र थे । प्रत्येक पत्र पर विभिन्न प्रकार के आठ-आठ नाटक हो रहे थे । ऐसे लाख योजन जितने विशाल गजराज पर शक्रेन्द्र अपने परिवार सहित बैठा था शक्रेन्द्र की सवारी चली । गजेन्द्र अपने विशाल देह को संकुचित करता हुआ थोड़ी ही देर में शकटमुख उद्यान में -- जहाँ प्रभु बिराजमान थे, आ पहुँचा । अन्य इन्द्र भी आ उपस्थित हुए ।
।
इसके पूर्व वायुकुमार देव ने उस क्षेत्र को एक योजन प्रमाण स्वच्छ कर दिया था और मेघकुमार देव ने सुगन्धित जल की वृष्टि से सिंचित कर दिया था । वहाँ वैमानिक देवों ने समवसरण के ऊपर के भाग का रत्नमय प्रथम गढ़ बनाया और उस पर विविध प्रकार की मणियों के कंगूरे बना कर सुशोभित किया । उस गढ़ के आस-पास ज्योतिषी देवों ने स्वर्णमय गढ़ बनाया और रत्नमय कंगूरों से सुशोभित किया। यह मध्य गढ़ था । इसके बाहर भवनपति देवों ने रजतमय तीसरा गढ़ बनाया । यह स्वर्णमय कंगूरों से दर्शकों को आकर्षित कर रहा था । प्रत्येक गढ़ की चारों दिशाओं में एक-एक ऐसे चार दरवाजे थे । प्रत्येक गढ़ के पूर्व दरवाजे पर दोनों ओर एक-एक वैमानिक देव द्वारपाल हो कर खड़ा था, दक्षिण द्वार पर दो व्यन्तर देव, पश्चिम द्वार पर दो ज्योतिषी देव और उत्तर द्वार पर दो भवनपति देव पहरा दे रहे थे। दूसरे गढ़ के चारों द्वार पर प्रथम के समान चारों निकाय की दो-दो देवियाँ पहरे पर थीं और बाहर के गढ़ के चारों द्वार पर देव खड़े थे । समवसरण के मध्य में व्यन्तर देवों ने वाया था । उस वृक्ष के नीचे विविध प्रकार के रत्नों से एक एक मणिमय छन्दक ( पीठ को छत के समान आच्छादित करने वाला आवरण विशेष )
एक विशाल अशोक वृक्ष बनपीठिका बनाई और उस पर
x देवों की वैक्रिय शक्ति के आगे यह कोई असंभव बात नहीं लगती । ऐसे गढ़ बनाने का उल्लेख समवायांग के अतिशयाधिकार में नहीं है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org