Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया, तब श्री अजितकुमार ने पिता से निवेदन किया-"हे पिताश्री ! संसार का त्याग कर के मोक्ष की साधना करना आपके लिए भी उत्तम है, मेरे लिए भी और सभी मनुष्यों के लिए आवश्यक है । यदि भोगफलदायक कर्म बाधक नहीं बनते हों, तो मेरे लिये भी निग्रंथ धर्म का पालन करना आवश्यक है । जो मनुष्य विवेकवंत होता है, वह उत्तम साधना में आगे बढ़ने वाली भव्य आत्मा के मार्ग में बाधक नहीं बनता, अपितु सहायक बनता है । मैं भी आपश्री के निष्क्रमण में बाधक नहीं बनूँगा | आप प्रसन्नतापूर्वक निर्ग्रथ दीक्षा ग्रहण करें, किन्तु राज्याधिकार मेरे लघुपिता (काका) युवराज श्री सुमित्रविजय को प्रदान कीजिए। ये सभी प्रकार से योग्य है ।"
श्री अजितकुमार की बात को बीच में ही रोकते हुए युवराज सुमित्रविजय बोले
"मैं किसी भी प्रकार इस संसारी राज्य के जंजाल में नहीं पड़ता । मैं भी मेरे ज्येष्ठ-बन्धु के साथ शाश्वत राज्य पाने का पुरुषार्थं करूँगा । शाश्वत राज्य पाने के लिए पहले खुद को अजर-अमर बनना पड़ता है । मैं भी जन्म-मरण के महारोग को नष्ट कर के सादि-अनन्त जीवन पाने के लिए प्रव्रजित बनूँगा और अनन्त आनन्द के धाम ऐसे महाराज्य का अधिनायक होउँगा । में अब आपका साथ छोड़ना नहीं चाहता । "
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श्री अजितकुमार ने ज्ञानोपयोग से सुमित्रविजय के प्रव्रजित होने में विलम्ब जान कर निवेदन किया-
" यदि आपकी इच्छा राज्यभार लेने की नहीं हो, तो आप भावयति के रूप में कुछ काल तक गृहवास में रहें । यह हमारे लिए उचित होगा ।" महाराजा जितशत्रु ने भी भाई को समझाते हुए कहा-
" भाई ! तुम कुमार की बात मत टालो । ये स्वयं तीर्थंकर हैं । इनके शासन में तुम्हारी सिद्धि होगी और सगरकुमार चक्रवर्ती नरेन्द्र होगा । इसलिए तुम अभी भाव-त्यागी रह कर संसार में रहो ।"
सुमित्रविजय ने अपने ज्येष्ठ-बन्धु का वचन स्वीकार किया । महाराजा जितशत्रु ने उत्सवपूर्वक अजितकुमार का राज्याभिषेक किया । श्री अजित नरेश ने सगरकुमार को युवराज पद पर प्रतिष्ठित किया । जितशत्रु महाराज निष्क्रमण उत्सवपूर्वक प्रव्रजित हुए । वे भगवान् ऋषभदेवजी की परम्परा के स्थविर मुनिराज के अंतेवासी हुए और चारित्र की विशुद्ध आराधना कर के केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त कर मोक्ष में चले गए ।
महाराज अजितनाथजी का राज्य संचालन सुखपूर्वक होने लगा । उनके महान्
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