Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० अजितनाथजी- सगरमा राज्याभिषेक और प्रभु की प्रव्रज्या
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सविचार' नामक शुक्लध्यान के प्रथम चरण को प्राप्त हुए । इस •आठवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रह कर और ध्यान-बल से हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगप्सा, मोहनीय कर्म की इन छ: प्रकृतियों को नष्ट करके " अनिवृत्ति बादर" नामक नौवें गुणस्थान में आये । ध्यान-शक्ति बढ़ती गई और वेदमोहनीय की प्रकृतियाँ तथा कषायमोहनीय के संज्वलन के क्रोध, मान और माया को नष्ट करते हुए 'सूक्ष्म-सम्पराय' नामक दसवें गुणस्थान में प्रवेश हुआ । ज्यों ज्यों मोह क्षय होता गया, त्यों त्यों आत्म-सामर्थ्य प्रकट होता गया और गुणस्थान बढ़ते गये। मोहनीय कर्म का समूल, सर्वथा नाश कर के प्रभु क्षीणमोह गुणस्थान में अ ये। यहाँ तक शुक्लध्यान का प्रथम चरण कार्य-साधक बना । इसके बल से मोहनीय कर्म नष्ट हो गया और परम वीतरागता प्रकट हो गई।
बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय में शुक्ल-ध्यान का " एकत्त्व-वितर्क-अविचार' नामक दूसरा चरण प्रारम्भ हुआ। इस ध्यान में प्रथम चरण के समान शब्द से अर्थ पर और अर्थ से शब्द पर ध्यान जाने की स्थिति नहीं रहती। इसमें स्थिरता बढ़ती है और एक ही वस्तु पर ध्यान स्थिर रहता है । चाहे शब्द पर हो या अर्थ पर । इस दूसरे चरण के प्राप्त होते ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, ये तीनों घातीकर्म एक साथ नष्ट हो गए। इनके नष्ट होते ही तेरहवें ग ग स्थान में प्रवेश हुआ । भगवान् अजितनाथजी सर्वज्ञसर्वदर्शी बन गए। वे तीनों लोक के तीनों काल के, समस्त द्रव्यों की सभी पर्यायों को हाथ में रही हुई वस्तु के समान सहज भाव से जानने लगे +।
देवों और इन्द्रों ने प्रभु का केवलज्ञान उत्पत्ति का महोत्सव किया। समवसरण की रचना हुई । उद्यानपालक ने महाराजा सगर' को बधाई दी। महाराजा बड़े हर्ष, उल्लास
+ शुक्ल-ध्यान का दूसरा चरण प्राप्त होते ही सर्वज्ञता-सर्वदर्शिता प्रकट हो जाती है। इसके साथ ही ध्यानान्तर दशा होती है। शुक्ल-ध्यान के प्रथम के दो चरण श्रुतावलम्बी है। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर श्रुत का अवलम्बन नहीं रहता और अवलम्बन नहीं रहता, तो ध्यान भी नहीं रहता। फिर ध्यानान्तर दशा चलती है, वह जीवन के अन्तिम घण्टों तक रहती है । जब जीवन का अन्तिम समय निकट आता है, तब शुक्ल-ध्यान का तीसरा चरण "सूक्ष्मक्रिया-अनिवर्ती" प्राप्त होता है। इसमें योगों का निरोध होता है । अन्तमहर्त के बाद "अयोगी-केवली" नामक चौदहवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है और "ममच्छिन्न-क्रिया अप्रतिपाती" नामक शक्ल-ध्यान का चौथा भेद भी। इसमें " शैलेशीकरण" हो कर आत्मा, पर्वत के समान अडोल, निष्कम्प एवं स्थिर होती है। यहाँ कायिकी आदि सूक्ष्म क्रियाएँ भी नष्ट हो जाती है और पाँच हृस्वाक्षर उच्चारण जितना काल रह कर आत्मा मोक्ष धाम को प्राप्त हो जाती है। फिर वहाँ सदा-सदा के लिए स्थिर हो जाती है और परमानन्द परम सुख एवं परम शान्ति में रहती है।
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