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भ. ऋषभदेवजी-युद्ध का आयोजन और समाप्ति
" क्या कहीं सुना भी है कि नकवी सम्राट का प्रतिस्पी हो कर कोई राज्य का उपभोग कर सकता है ? महाराज! आप मेरी प्रार्थना नहीं माने, तो आपकी इच्छा, परन्तु आपने खण्ड-साधना के समय यह प्रतिज्ञा की थी कि “ मैं अपने सभी शत्रुओं को जीत कर, अपनी आज्ञा के अधीन बनाने के बाद राजधानी में प्रवेश करूँगा।" उस प्रतिज्ञा का क्या होगा--महाराज ! और चक्र-रत्न जो अब तक नगर के बाहर ही रहा है, उसे कैसे स्थानासीन करेंगे--प्रभु ! मैं तो निवेदन करूँगा कि भाई के रूप में शत्रु बने हुए बाहुबली की उपेक्षा करना उचित नहीं है । फिर आप दुसरे मन्त्रियों से भी पूछ लीजिए।"
युद्ध का आयोजन और समाप्ति
सेनाधिपति की बातें सुनने के बाद सम्राट ने प्रधान-मन्त्री वाचस्पति की ओर देवा । उन्होंने भी सेनापति की बात का समर्थन किया और विशेष में कहा-"महाराज ! अब युद्ध की तय्यारी का आदेश दीजिए।"
महाराज ने आज्ञा प्रदान कर दी । शुभ मुहूर्त में प्रस्थान किया और बहली देश में आ कर सीमान्त पर पड़ाव डाल दिया ।
भरतेश्वर की चढ़ाई के समाचार पा कर बाहुबलीजी ने भी तय्यारी की और सीमान्त पर आ कर पड़ाव लगाया। दूसरे दिन चारण-भाटों ने दोनों नरेशों को युद्ध के लिए निमन्त्रण दिया । बाहुबलीजी ने अपनी युद्ध-परिषद् के राजाओं के परामर्श से अपने पुत्र राजकुमार सिंहरथ को सेनापति घोषित किया और भरतेश्वर ने सुषेण सेनापति को युद्ध करने की आज्ञा प्रदान की। भरतेश्वर ने सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहा;
“योद्धागण ! आप मेरे छोटे भाई से युद्ध करने जा रहे हैं । आप जिस प्रकार मेरी आज्ञा का पालन करते हैं, उसी प्रकार सेनापति की आज्ञा का पालन करें और यद्ध में विजय प्राप्त करें। आप यह ध्यान में रखें कि जिसके साथ आप युद्ध करने जा रहे हैं, वह साधारण सेना नहीं है। बाहुबली स्वयं अद्वितीय महाबली है और उसके सेनापति, सामन्त तथा सैनिक सभी शक्तिशाली हैं। किरातों के साथ हुए युद्ध से भी यह यद्ध विशेष उग्र हो सकता है । मैं आपको विपक्ष का बल बढ़ा-चढ़ा कर नहीं बता रहा हूँ। यह वास्तविक स्थिति है । अतएव आपको किसी प्रकार का प्रमाद और असावधानी नहीं रखनी चाहिए और प्राप्त उत्तरदायित्व का प्राणपण से पालन करना चाहिए।"
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