Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
पर पहुँच कर सिद्ध हो गए। भगवान् इस देह का त्याग कर अजर, अमर अशरीरी, परमेश्वर परमात्मा हो गए। परम पारिणामिक भाव प्रकट कर के सादि-अनन्त सहज आत्म-सुख के भोक्ता बन गए ।
___ अनन्तानन्त गुणों के स्वामी ऐसे परमात्मा के प्रस्थान कर जाने पर देह, उजड़े हुए घर के समान सुनसान हो गया। क्या करे अब उस देह का ? हाँ, यह ठीक है कि उसमें जगदुद्धारक. अनन्त गुणों के भडार परमपूज्य परमात्मा निवास कर चुके हैं। यह वही पाँच सो धनुष ऊँचा, वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान संस्थित और परम शुभ लक्षणों से युक्त शरीर है। जिनकी प्राप्ति करोड़ों मनुष्यों को नहीं होती, अरे, अनन्तानन्त जीवों को नहीं होती। ऐसे अनन्त जीव मोक्ष पा चुके, जिन्हें वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन और प्रथम संस्थान तो मिला, किन्तु ऐसे उत्तमोत्तम लक्षणों से युक्त महाप्रभावशाली देह की प्राप्ति नहीं हुई। किन्तु इसका महत्व उस महान् आत्मा के साथ ही था । इसके संहनन, संस्थान और लक्षण, उस आत्मा के कारण ही महत्व रखते थे। उसके प्रस्थान करने के बाद इसका सारा महत्व लुप्त हो गया। हंस (आत्मा) = परमहंस चला गया और मानसरोवर सूना हो गया। अब इसको उचित रीति से नष्ट कर देना ही बुद्धिमानी है।
___ यह वही शरीर है, जिसके द्वारा लाखों मनुष्यों का उपकार हुआ और परम्परा से असंख्य जीवों का उद्धार हुआ। इसको देखते ही भव्य जीवों की प्रसन्नता का पार नहीं रहता था । जिनके दर्शन, श्रवण एवं वन्दन के लिए लोग तरसते थे । आज इस देह के होते हुए भी वे लोग शोकाकुल हो कर रो रहे हैं । क्यों ? इसलिए कि वह देहेश्वर, देह छोड़ कर प्रयाण कर गया। अब यह घर सर्वथा सूना हो गया। अब इस शरीर से उन परमात्मा का कोई सम्बन्ध नहीं रहा । वे उस परम प्रकाशमान् परमात्मा के विरह से रो रहे हैं। शुभ होते हुए भी उनमें पर दृष्टि तो है। जब तक अपने में रहे हुए परमात्मा स्वरूप आत्मा की परम दशा प्रकट नहीं होती, तब तक परमात्मा का अवलम्बन ही आधारभूत है । इस परम ज्योति के प्रकाश में अपनी सुसुप्त मन्दतम ज्योति भी क्रमशः सतेज की जा सकती है । पहलवान से शिक्षा पा कर एक बच्चा भी स्वयं पहलवान एवं अपराजित योद्धा बन सकता है।
भरतेश्वरादि भव्यात्मा, उस देह--अखण्ड एवं परिपूर्ण देह के उपस्थित होते हुए भी परमात्म-विरह से दुःखी हो रहे थे--रुदन कर रहे थे। उनकी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी । ग्रंथकार श्रीमद् हेमचंद्राचार्य लिखते हैं कि-- भगवान् के विरह का आघात नहीं सह सकने के कारण चक्रवर्ती सम्राट मूच्छित हो गए और बहुत समय तक संज्ञाशून्य
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