Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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सुनार की कथा का औचित्य
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तस्सुवसमणगिमित्तं जक्खोच्छत्तो समाणदिट्ठित्ति ।
णिउणो को समप्पिय माणिक्कं सागमो तत्तो ॥२६॥ अवरो रायासपणो अहंति परिबोहगो असमविट्ठी।
कालेणं वीसंभो तओ य मायापओगोत्ति ॥९२७॥ णठें रायाहरणं पउहग सिट्ठति पउरघरलाभे ।
माहण पच्छित्तं बहुभयमेवमदोस तहवित्ति ॥२८॥ जक्खभत्थण विण्णवण ममत्थे तं णिवं सुदंडेण ।
तच्चोयण परिणामो विण्णत्ती तहलपत्ति वहो ।।९२९॥ संगच्छण जहसत्ती खग्गध रुक्खेव छणणिरूवणया।
तल्लिच्छ जत्तनयर्ण चोयणमेवंति पडिवत्ती ॥३०॥ एवमणंताणं इह भीया मरणाइयाण दुक्खाणं ।।
सेवंति अप्पमायं साहू मोक्खत्थमुज्जुत्ता ।।९३१। उपरोक्त गाथाओं में बताया है कि किसी नगर का राजा जिनधर्म का श्रद्धालु एवं बुद्धिमान् था। उसके दानादि उपायों से बहत से लोग जिनशासन के प्रति अनुराग रखते थे। नगर के प्रधान और सेठ आदि सभी धर्म में अनुरक्त थे। किन्तु एक सेठ का पुत्र, धर्म से प्रभावित नहीं था । वह भारीकर्मा, मिथ्यात्व के गाढ़ उदय से अधर्मप्रिय था। वह पाखंड के संसर्ग से, हिंसा का दुःखदायक परिणाम नहीं मान कर सुखदायक मानता था । वह जिनेश्वर के अप्रमत्तता प्रधान उपदेश को बिनर्षिय--समझ से परे-असंभव मानता था। उसका कहना था कि जिस प्रकार किसी के सिर में महा पीड़ा हो रही हो और उसे कोई उपाय बतावे कि 'तुम महानाग---मणिधर सर्पराज के सिर की मणि ला कर अपने गले में बाँधो,' तो तुम्हारी पीड़ा मिट सकती है। यह उपाय जैसा असंभव है, वैसा ही जिनेश्वर का अप्रमत्तता का उपदेश भी असंभव है। उस मिथ्यादष्टि श्रेष्ठिपुत्र के मिथ्यात्व का उपशमन करने के लिए, राजा ने यक्ष नाम के विद्यार्थी द्वारा मायापूर्वक, अपनी माणिक्य जड़ित मुद्रिका श्रेष्ठपुत्र के आभरणों में रखवा दी। इसके बाद मुद्रिका खो जाने की हलचल हुई । ढिंढोरा पीटा गया और अंत में मुद्रिका श्रेष्ठिपुत्र के आभरणों में से निकली । वह पकड़ा गया। वह भयभीत हो गया। यक्ष नामक विद्यार्थी ने राजा से अपने मित्र को छोड़ने की प्रार्थना की, तो राजा ने यह शर्त रखी कि 'यदि अपराधी, तेल का पात्र भर कर नगरभर में घूमे और उस पात्र में से एक भी बंद नहीं गिरने दे। यदि एक बंद भी गिरी. तो सिर उड़ा दिया जायगा। वह तेल-पात्र भर कर चला । साथ में खड़गधारी सैनिक थे।
बाजार में--तिराहे-चौराहे पर नृत्यादि जलसे हो रहे थे। किंतु वह भयभीत सेठ-पुत्र, एकाग्र ही रहा । उसने दूसरी ओर ध्यान ही नहीं दिया और बिना एक भी बूंद गिराये वैसा ही पात्र राजा के सामने ले आया। राजा ने उससे नगर की शोभा और उत्सवों का हाल पूछा, तो वह बोला:
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