Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० ऋषभदेवजी - भगवान् का मोक्ष गमन
उसके बहुत काल बीत जाने पर इसी भरत क्षेत्र के चौबीसवें तीर्थंकर होओगे ।"
इस प्रकार भविष्य कथन सुना कर सम्राट प्रभु के पास आये और वन्दन- नमस्कार कर के स्वस्थान गए ।
भविष्यवाणी सुन कर मरीचि परम प्रसन्न हुआ । उसकी प्रसन्नता हृदय में समाती नहीं थी । उसने करस्फोट करते हुए कहा-
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'अहो, मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि सभी वासुदेवों में प्रथम वासुदेव होउँगा, चक्रवर्ती भी बनूँगा और इसी भरत क्षेत्र में इसी अवसर्पिणी काल का अंतिम तीर्थकर भी बनूंगा । अहा, में सभी उत्तम पदवियों का उपभोग कर के मोक्ष प्राप्त कर लूंगा । मेरा कुल भी कितना ऊँचा है कि जिसमें मेरे पितामह तो इस काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान् हैं, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती महाराजाधिराज हैं और में प्रथम वासुदेव होऊँगा । विश्वभर में मेरा कुल सर्वश्रेष्ठ है ।'
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जिस प्रकार मकड़ी अपनी ही बनाई हुई जाल में फँस जाती है, उसी प्रकार मरीचि ने भी कुल का गर्व कर के कुल मद से 'नीच गोत्र' कर्म का बन्ध कर लिया ।
भगवान् का मोक्ष गमन
भगवान् ऋषभदेवजी भव्य जीवों को मोक्षमार्ग बताते हुए और अपने तीर्थंकर नामकर्मादि की निर्जरा करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते रहे । भगवान् के उपदेश से प्रभावित हो कर मोक्षाभिलाषी लाखों मनुष्य प्रव्रजित हुए और लाखों ने श्रावक धर्म धारण किया । प्रभु के मोक्षगमन का समय निकट आ रहा था । मोक्ष कल्याण से सम्बन्धित क्षेत्र की ओर भगवान् का सहजरूप से पदार्पण हो रहा था । भगवान् अष्टापद पर्वत पर पधारे । एक शिला पर पद्मासन से विराजमान हो गए । अनाहारक दशा में बाधक आहार- पानी छूट गया। चौदह भक्त जितने काल तक निराहार तप और निश्चल - पादपोपगमन दशा में रहे । अघातिया कर्मों की स्थिति एवं शरीर सम्बन्ध क्षय होने ही वाला था । इस अपूर्व स्थिति को प्राप्त होने के लिए शुक्लध्यान की तीसरी मंजिल में प्रवेश हुआ और योगों का निधन होते लगा । योग निरोध होते ही चरम गुणस्थान में प्रवेश कर शुक्ल ध्यान के शिखर पर आरूढ हो गए। पर्वत के समान सर्वथा अहोल, अकम्प एवं अचल ऐसी अपूर्व स्थिरता को प्राप्त करके शरीर को त्याग दिया और उस अणु समय में ही लोकाग्र
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