Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थंकर चरित्र
सुश्रावकों को भोजन कराया । और सभी से लिए अपनी भोजनशाला भोजन करने का
भरतेश्वर ने
इन्द्र परामर्श से भरतेश्वर ने सभी श्रावकों को सदा के निमन्त्रण दे दिया और कहा
" अब आप कृषि आदि आरंभजनक कार्य नहीं कर के स्वाध्याय में रत रह कर निरन्तर अपूर्व ज्ञानाभ्यास करने में ही तत्पर रहें और भोजन कर के मेरे पास आ कर प्रतिदिन यह कहा करें-- " जितो भवान् वर्द्धते भीस्तस्मान्माहन-माहन " ( अर्थात् आप जीते गये हैं, भय बढ़ रहा है, इसलिए आत्मगुणों को मत हणो, मत हणो ) । सम्राट का निमन्त्रण स्वीकार कर श्रावकगण वहीं भोजन करने लगे और भरतेश्वर को उद्बोधन करने लगे ।
भरतेश्वर, उन बोधप्रद
देवों के समान रति-क्रीड़ा में मग्न एवं प्रमादी बने हुए शब्दों को सुन कर विचार करते कि " मैं किससे जीता गया हूँ ? मुझे किसने जीत लिया है ? मुझे किसका भय है ? किस प्रकार का भय बढ़ रहा है ?” विचार करते, वे अपने मन से ही समाधान करते --"हाँ, हाँ, ठीक तो है । में क्रोत्रादि कषायों से जीता गया हूँ और इन कषायों से ही मेरे लिए भय-स्थान बढ़ रहा है। ये मेरे हितैषी मुझे सावधान कर रहे हैं और कह रहे हैं कि--" ओ मोहान्ध ! सावधान हो जा । तेरे आत्मगुणों का हनन हो रहा है । अपनी आत्मा की तो दया कर । मत कर ऐ नादान ! अपने आत्मगुणों की हत्या मत कर ।" ये विवेकवंत साधर्मी बन्धु मुझे सावधान करते हैं। मुझ पर उपकार करते हैं । अहो ! मैं कितना प्रमादी और कैसा विषय लोलुप हूँ कि यह सब सुनता और समझता हुआ भी भूल जाता हूँ और कामदेव के प्रवाह में बहता ही जा रहा हूँ । यह कैसी विडम्बना है --मेरी । में अपने आत्मगुणों के प्रति इतना उदासीन क्यों हो गया ?"
इस प्रकार भरतेश्वर कभी धर्म-चिन्तन में, तों कभी विषय-प्रवाह में बह जाते हैं । जब साधर्मियों द्वारा उद्बोधन मिलता, तो विकारी प्रवाह रुक कर धर्म-भावना प्रवाहित होने लगती और जब परम सुन्दरी श्रीदेवी अथवा अन्य मदनमोहिनी का मोहक रूप एवं उत्तेजक स्वर का आकर्षण बढ़ता, तो उस पवित्र भावना पर पानी फिर जाता । उदयभाव का जोर एवं बालवीर्य का प्रभाव दुर्द्धर्ष होता है । निकाचित उदय को रोकने की सामर्थ्य किसमें है ? फिर भी हृदय में जगी हुई दर्शन - ज्योति व्यर्थ नहीं जाती । वह मोह के महावेग को कालान्तर में नष्ट कर के ही रहती है
भरतेश्वर की इस प्रकार की डोलायमान स्थिति चल रही है। एक दिन पाकाधिकारी (प्रधान रसोड़ेदार ) ने आ कर महाराजाधिराज से निवेदन किया;
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