Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
भ० ऋषभदेवजी -- भरतेश्वर का पश्चात्तापं और साधम सेवा
" स्वामिन् ! भोजनशाला में भोजन करने वालों की संख्या बहुत बढ़ गई है । बहुत से लोग झूठ-मूठ ही अपने को श्रावक बता कर भोजन कर जाते हैं। उनकी परीक्षा कैसे की जाय, जिससे असली-नकली का भेद किया जा सके ?"
१०५
- " अरे भाई ! तुम भी तो श्रावक हो । तुम्हें श्रावक की परीक्षा करना नहीं आता क्या ? अब जो अपने को श्रावक बतावे, उससे पूछो कि श्रावक के व्रत कितने होते हैं और तुम कितने व्रतों का पालन करते हो ? जब वे पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का स्वरूप बतावे और अपने को उनका पालक कहे, तो उसे मेरे पास भेजो । मैं उसके शरीर पर कांकिणी-रत्न से तीन रेखाएँ खिच दूंगा । ये रेखाएँ उनके ज्ञान, दर्शन और चारित्र का परिचय देगी। जिसके शरीर पर उत्तरासंग के समान तीन रेखाएँ हों, उन्हें श्रावक समझो और उन्हीं को भोजन कराओ " - - भरतेश्वर ने परीक्षा की छाप निश्चित् कर दी । इसका प्रभाव भी अच्छा हुआ । नकली श्रावकों की भीड़ कम हो गई । भरतेश्वर के बाद उनके उत्तराधिकारी महाराज 'सूर्ययश' के शासन काल में कांकिणीरत्न नहीं रहा, तब स्वर्ण के तीन तार पहिनना, श्रावक का परिचय माना गया । उनके बाद चाँदी की, यों होते-होते सूत्र के तीन धागे का परिचय सूत्र धारण किया जाने लगा । इस परिचय चिन्ह को " जैनोपवित " कहा जाने लगा । जैनोपवित का अनुकरण 'यज्ञोपवित ' के रूप में हुआ ।
वर्ष में दो बार श्रावकों की परीक्षा होती और नये बने हुए श्रावक उसमें सम्मिलित होते । श्रावकों के द्वारा भरतेश्वर को उद्बोधन दिया जाता रहा। वे "जितो भवान् वर्द्धते भीस्तस्मान् ” को सामान्य स्वर में और " माहन " शब्द को उच्च स्वर में कहते, इसलिए वे " माहन" उपनाम से प्रसिद्ध हुए । आगे चल कर यह माहन शब्द 'ब्राह्मण' के रूप में परिवर्तित हो गया । प्राकृत का माहन, संस्कृत में ब्राह्मण बन जाता है ।
जब धर्म-प्रिय चक्रवर्ती सम्राट, श्रावकों को सन्मानपूर्वक भोजन कराने लगे, तो प्रजा में की उनके प्रति आदर बढ़ा और साधर्मी की भोजनादि से सेवा करने की शुभ प्रवृत्ति फैली । सम्राट ने सम्यक्ज्ञान के प्रचार और स्वाध्याय के लिए जिनेश्वरों की स्तुति, तत्त्व बोध, आगार धर्म और अनगार धर्म --समाचारी से युक्त चार वेद की रचना की । इनका स्वाध्याय सर्वत्र होने लगा । आचार्य लिखते हैं कि आगे चल कर इन्हीं वेदों से आकर्षित हो कर अन्य विद्वानों ने अपने मतानुसार लौकिक वेदों की रचना की ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org