Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० ऋषभदेवजी -- भरतेश्वर का पश्चात्ताप और साधर्मो-सेवा
३ माण्डलिक राजा की उसके अधिकार क्षेत्र में आज्ञा लेना । ४ गृह स्वामी से मकान, पाठ आदि लेना ।
५ साधर्मी साधु का अवग्रह |
उपरोक्त अवग्रह का क्रम पश्चानुपूर्वी है । सब से पहले साधर्मी का अवग्रह लिया जाना है, उसके बाद सागारी का । इस प्रकार करते हुए यदि चक्रवर्ती का भी योग नहीं हो, तो अन्त में देवेन्द्र का अवग्रह लिया जाता है । यदि देवेन्द्र की आज्ञा हो, किन्तु राजा की आज्ञा नहीं हो, तो वह वस्तु स्वीकार करने योग्य नहीं रहती ।"
इन्द्र ने कहा - "प्रभो ! आपके जितने भी साधु-साध्वी हैं, उन सभी को में अपने अवग्रह की आज्ञा, सदा के लिए देता हूँ ।"
"
यह सुन कर चक्रवर्ती नरेन्द्र ने विचार किया-' इन श्रेष्ठ मुनियों ने मेरे आहारादि को स्वीकार नहीं किया, किन्तु अवग्रह की आज्ञा दे कर कुछ तो कृतार्थ बनूं ? " वह उठा और प्रभु के समीप पहुँच कर निवेदन किया--" प्रभु! में भी अवग्रह की आज्ञा देता हूँ ।' इसके बाद उन्होंने देवेन्द्र से पूछा -- --" कहिये, इस लाई गई भोजन-सामग्री का क्या किया जाय ?"
-- '' नरेन्द्र ! इससे आप व्रतधारी सुश्रावकों की सेवा कर के लाभान्वित हो सकते हैं "--देवेन्द्र ने कहा और भरतेश्वर ने ऐसा ही किया ।
भरतेश्वर को अपने साधर्मी इन्द्र का मनोहर रूप देख कर आश्चर्य हुआ । उन्होंने
पूछा --
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' देवेन्द्र ! आप देवलोक में भी इसी रूप में रहते हैं, या दूसरे रूप में ?" -- '' नरेन्द्र ! स्वर्ग में हमारा ऐसा रूप नहीं होता । यह रूप तो हमें यहाँ के लिए खास तौर पर बनाना पड़ता है । हमारा असली रूप इतना प्रकाशमान होता है कि मनुष्य देख ही नहीं सकता - देवेन्द्र ने कहा ।
"
--" शकेन्द्र ! मेरी बहुत दिनों से इच्छा हो रही है कि में आपका असली रूप देखूं । क्या आप मेरी इच्छा पूर्ण करेंगे " - राजेन्द्र ने अपना मनोरथ व्यक्त किया ।
देवेन्द्र ने राजेन्द्र की इच्छा पूरी करने के लिए अपनी एक अंगुली दिखाई । वह सुशोभित अंगुली, दीपशिखा के समान प्रकाशित एवं कान्तियुक्त थी । भरतेश्वर उस दिव्य रूप को देख कर प्रसन्न हुए । इन्द्र और नरेन्द्र, जिनेन्द्र को नमस्कार कर के स्त्रस्थान गए । नरेन्द्र ने देवेन्द्र की अंगुली जैसा प्रकाशमान आकार बना कर जनता को दिखाने के लिए स्थापन किया और इन्द्रोत्सव ननया । उसी दिन से 'इन्द्र महोत्सव' की प्रथा प्रारम्भ हुई।
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