Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ. ऋषभदेवजी --भारतेश्वर का पश्चात्ताप ओर साधी-सेवा
उपस्थित हुए। वनपालक ने महाराजाधिराज को भगवान के पधारने की बधाई दी। इस शुभ समाचार ने सम्राट के हृदय में हर्ष की बाढ़ उत्पन्न कर दी। उन्होंने बधाई देने वाले को साड़े बारह करोड़ स्वर्ण-मुद्रा प्रदान कर पुरस्कृत किया और सिंहासन से नीचे उतर कर, प्रभु की ओर सात-आठ चरण चल कर विधिवत् वन्दना की। इसके बाद भरतेश्वर ने प्रभु के दर्शनार्थ समवसरण में जाने के लिए तय्यारियां करने की आज्ञा दी। स्वयं स्नानादि कर के वस्त्राभूषण से सुसज्जित हुए। बड़ी धूमधाम से सवारी निकली । प्रभु के समवसरण में पहुँच कर भक्तिपूर्वक वन्दन-नमस्कार किया और योग्य स्थान पर सभा में बैठे। प्रभु ने धर्मोपदेश दिया। प्रभु की उपशम-भाव-वर्धक देशना सुन कर भरतेश्वर को विचार हुआ;
"अहो ! मैं कितना लोभी हूँ। मेरी तृष्णा कितनी बढ़ी हुई है। मैंने अपने छोटे भाइयों का राज्य ले लिया। मेरे ये उदार हृदय वाले बन्धु, मोह को जीत कर और प्रभु के चरणों में रह कर अपनी आत्मा को शान्त-रस में निमग्न कर, अलौकिक आनन्द का अनुभव कर रहे हैं। अरे, कौआ जैसा अप्रिय पक्षी भी अकेला नहीं खाता । वह जहाँकहीं थोड़ा भी खाने जैसा देखता है। तो पहले 'काँव-काँव'कर के अपने जाति-बन्धुओं को बुलाता है और सब के साथ खाता है। किंतु मैं ऐसा पापी हुआ कि अपने छोटे भाइयों का राज्य छिन कर उन्हें माधु बनने पर विवश किया। मैं उन कौओं से भी गया-बीता हो गया। यद्यपि मैंने इनका छोड़ा हुआ राज्य, इनके पुत्रों को ही दिया है, किन्तु यह तो उस डाकू जैसा कार्य हुआ, जो एक को लूट कर दूसरे को देता है । इसमें भी मैने अपने अधिपत्य का स्वार्थ तो साध ही लिया । हा, मेरे छोटे भाई मोक्ष पुरुषार्थ में लगे हैं, तब मैं सब से बड़ा हो कर भी अर्थ और काम पुरुषार्थ में रंग रहा हूँ। ये त्यागी हैं और मैं भोगी हूँ। इन्हें भोग से विमुख कर के मैं मन चाहे उत्कृष्ट भोग, भोग रहा हूँ। यह मुझे शोभा नहीं देता। मुझे अपने बन्धुओं के साथ संसार में रह कर भ्रातृ-द्रोह के कलंक को मिटाना चाहिए।"
इस प्रकार विचार कर के भरत महाराज उठे। उन्होंने प्रभु के निकट जा कर विनयपूर्वक मनोभाव व्यक्त किये और अपने भाई-मुनियों को भोग का निमन्त्रण दिया। भरतेश्वर के सुसुप्त विवेक को जाग्रत करते हुए जिनेश्वर भगवान् ने कहा ;
"हे सरल हृदयी राजन् ! तेरे ये मुनि-बन्धु महा सत्वशाली हैं । इन्होंने संसार को असार और भोग को रोग-शोक और दुःख का बीज जान कर त्यागा है । ये महाव्रतधारी निग्रंथ हैं । अब इनका आत्माराम, धर्माराम में विचर कर निर्दोष आनन्द का उपभोग कर रहा है । इस पवित्र उत्तमोत्तम आत्मानन्द को छोड़ कर अब ये पुद्गलानन्द-विषयानन्द का विचार ही नहीं करते। इनकी दृष्टि में पुद्गलानन्दी जीव, उस सूअर जैसा है, जो विष्ठा
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