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भ• ऋषभदेवजी--योगीराज को बहिनों द्वारा उद्बोधन
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में उन्होंने कर्म के वृन्द के वृन्द क्षय कर डाले । उन्होंने ध्यानस्थ हो कर अन्तर्शोधन किया और बहुत-से दोषों को नष्ट कर डाला । किन्तु एक दोष उनकी आत्मा में अब तक छुप कर बैठा हुआ है। उसकी ओर उनकी दृष्टि नहीं गई। इस दोष को दूर करने में तुम्हारा निमित्त आवश्यक है । उनका उपादान तुम्हारा निमित्त पा कर जाग्रत हो जायगा और मोहावरण को नष्ट कर के शाश्वत--सादि-अपर्यवसित परम ज्ञान प्राप्त कर लेगा । इस समय तुम्हारे उद्बोधन की आवश्यकता है । इसलिए तुम जाओ और उनसे कहो कि--" मुनिवर ! अब इस मान रूपी गजराज से नीचे उतरो। आप जैसे परम पराक्रमी, इस मान के फन्दे में फंस कर वीतराग दशा से वंचित रहें---यह उचित नहीं है।'
जब बाहुबली जी दीक्षित हुए, तो उनके मन में यह विचार आया-" यदि मैं अभी प्रभु के चरणों में चला जाउँगा, तो मुझे अपने छोटे भाइयों को भी वन्दन-नमस्कार करना पड़ेगा। क्योंकि वे मुझसे पूर्व दीक्षित हुए हैं। इसलिए मैं यहीं तप करूँ और केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद प्रभु की सेवा में जाउँ ।" इन विचारों में मान-कषाय का रंग था । यही दोष वीतरागता में बाधक बन रहा था।
__ महासती ब्राह्मी और सुन्दरी, वन की ओर चली । वन में पहुँच कर वे मुनिराज बाहुबलीजी को खोजने लगी । वे उन्हें दिखाई नहीं दिये । पसीने से जमी हुई रज से लिप्त
और लताओं से आच्छादित महर्षि को वे बड़ी कठिनाई से खोज सकी । उनको पहिचानना सरल नहीं था । वे मनुष्य के रूप में तो दिखाई ही नहीं देते थे । पत्रावली से आच्छादित शरीर को कोई कैसे पहिचान सकता है ? वुद्धिबल से ही वे मुनिवर को जान सकी । तीन बार प्रदक्षिणा कर के वन्दना की और इस प्रकार बोली ;--
"महर्षि ! हम ब्राह्मी-सुन्दरी साध्वी हैं। अपने पिता एवं विश्वतारक भगवान् ऋषभदेवजी ने हमारे द्वारा आपको कहलाया है कि हाथी पर सवार रहने वाले पुरुषों का मोह-महाशत्रु नष्ट नहीं होता । वे केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते । अतएव हाथ से उतर कर नीचे आइये ।"
इतना कह कर वे दोनों महासतियें वहाँ से लौट आई । महामुनि बाहुबलीजी, उपरोक्त शब्दों को सुन कर आश्चर्य में पड़ गए। निमित्त ने अपना काम कर दिया। अब उपादान अंगड़ाई ले कर अपना पराक्रम करने लगा। महर्षि विचार करने लगे;--
__ "अहो ! मैने तो समस्त सावद्य-योग का त्याग कर दिया और निःसंग हो कर वन में साधना कर रहा हूँ। मेरे पास हाथी तो क्या, घोड़ा-गधा कुछ भी नहीं है। इस
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