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भर ऋषभदेव जी --- बाहुबलीजी की कठोर साधना
चक्र-रत्न को लौटता देख कर बाहुबलीजी का कोप भड़क उठा । वे मुक्का तान कर भरतेश्वर पर झपटे, किन्तु भरतेश्वर के निकट आते ही एकदम रुक गए और सोचने लगे ; -- "अहो ! भरतेश्वर के समान मैं भी राज्य में लुब्ध हो कर ज्येष्ठ-बन्धु को मारने के लिए तत्पर हो रहा हूँ ? हा, इस पापिनी तृष्णा ने कितना अनर्थ कराया ? जिस पिता ने राज्य - वैभव को तृण के समान त्याग दिया और जिन छोटे भाइयों ने इसे उच्छिष्ट के समान जान कर छोड़ दिया, उसी के लिए में ज्येष्ठ-बन्धु को मारने के लिए झपट रहा हूँ । धिक्कार है- मुझे ।" इस प्रकार सोचते हुए उन्होंने भी राज्य का त्याग कर, निर्ग्रथ बनने का निश्चय कर लिया + और भरतेश्वर से बोले ; --
"हे बन्धुवर ! मैंने
राज्य के लिए ही आपको कष्ट दिया और विद्रोह किया । इसके लिए आप मुझे क्षमा करें। आप क्षमा के सागर हैं। मैं स्वयं इस राज्य का त्याग कर के प्रभु के मार्ग का अनुगमन करूँगा ।"
उन्होंने उठाये हुए अपने मुक्के को अपने सिर पर उतार कर केशों का लोच कर के संयम स्वीकार कर लिया । देवों ने जयध्वनि के साथ पुष्प वर्षा की ।
बाहुबली को प्रव्रजित होते देख कर भरतेश्वर लज्जित हुए और अश्रुपात करते हुए बाहुबली के चरणों में नमस्कार किया। उस विरक्त बन्धु का गुणगान करते हुए कहा'मुनिवर ! आप धन्य हैं । आपने मुझ पर अनुकम्पा कर के राज्य का त्याग कर
दिया । मैं पापी ही नहीं, पापियों का शिरोमणि हूँ, अन्यायी हूँ और लोभियों में धुरन्धर हूँ। में राज्य को संसार का मूल जानता हुआ भी नहीं छोड़ सकता। वीर ! तुम ही पिताश्री के सच्चे पुत्र हो, जो पिताजी के मार्ग का अनुसरण कर रहे हो । में उनके मार्ग पर चलूंगा, तभी उनका खरा पुत्र बनूंगा ।"
इस प्रकार पश्चात्ताप करते हुए वहाँ से हटे और बाहुबलीजी के पुत्र ' चन्द्रयश' को उस राज्य पर स्थापित कर के बाहुबलीजी को पुनः वंदना की ओर राजधानी में लौट आये ।
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बाहुबलीजी की कठोर साधना
प्रव्रज्या स्वीकार कर के मुनिराज श्री बाहुबलौजी वहीं-- उसी स्थान पर ध्यानस्थ
+ विभिन्न साहित्य में मतान्तर है । इसमें दीक्षा का कारण स्वयं के हृदय में उद्भूत विचार बताया, तब अन्यत्र इन्द्र द्वारा किया हुआ निवेदन बताया है।
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