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भ० ऋषभदेव जी--भरतेश्वर के बल का परिचय
जिनेश्वर भगवान् के परमभक्त श्रमणोपासक ? आप सच्चे जिनोपासक हैं या यह सब दंभ ही है ? अरे, आप इस जमती हुई राजनीति में ही युद्ध का बीज बोते हैं, तो भविष्य की राज्य-परम्परा कैसी होगी ? कुछ सोचा भी है ?"
देवों की बात सुन कर भरतेश्वर ने कहा--
"आपका कहना यथार्थ है । आप जैसे उत्तम देव ही विश्वहित की भावना रख कर सद्प्रवृत्ति करते हैं । दूसरे तो पक्ष, विपक्ष के हैं, तथा लड़ाने-भिड़ाने और खेल देखने वाले हैं।"
" हे पवित्र आशय वाले देवों ! मैं युद्ध-प्रिय नहीं हूँ। मैं दूसरे किसी से भी युद्ध करना नहीं चाहता, तो अपने छोटे भाई से युद्ध करना कैसे चाहूँगा ? मुझे राज्य-लोभ भी नहीं है, किन्तु करूँ क्या? यह चक्र-रत्न स्थानासीन नहीं होता। इसी के लिए मुझे विवश हो कर यह मार्ग अपनाना पड़ा। यदि में ऐसा नहीं करता हूँ, तो चक्रवर्ती की परम्परा बिगड़ती है, अनहोनी घटना होती है। इस समय में उत्साहरहित हो कर जन-संहार की चिन्तायुक्त इस अप्रिय प्रवृत्ति में लगा हूँ।"
"यह कोई निर्यात का ही प्रभाव लगता है, अन्यथा बाहुबली भी ऐसा नहीं था। वह मुझे पिता के समान मानता था । मेरे साठ हजार वर्ष तक खंडसाधना में लगे रहने से उसका स्नेह क्षीण हो कर विपरीत भावना बनी है। अब आप ही कोई मार्ग निकाले।"
"नरेन्द्र ! हम बाहुबलीजी से मिलते हैं। यदि समाधान का कोई मार्ग निकले, तो ठीक ही है। अन्यथा इस भीषण युद्ध को त्याग कर आप दोनों भाई स्वयं ही निःशस्त्र यद्ध कर के निर्णय कर लें। क्या आप यह बात मानेंगे ?"
-"हाँ, मुझे स्वीकार है"-भरतेश्वर ने कहा।
देव, बाहुबलीजी के पास आये। उन्हें भी समझाया । वे नहीं माने । किन्तु भरतेश्वर के साथ स्वयं युद्ध कर के निर्णय करने और सैनिकों को युद्ध से पृथक् ही रखने की बात उन्होंने भी स्वीकार कर ली। भीषण रक्तपात टल गया।
भरतेश्वर के बल का परिचय
दोनों ओर युद्धबन्दी की घोषणा हो गई। दोनों ओर के सैनिकों को यह समझौता अच्छा नहीं लगा । वे युद्ध कर के विजय प्राप्त करने के लिए तरस रहे थे। उन्होंने युद्ध रोकने का प्रयत्न करने वालों को गालियां दी। रण-क्षेत्र से उनका पलटना कठिन हो गया।
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