Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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ऋषभदेवजी -- बाहुबली नहीं माने
करने के अविनय को महाराजाधिराज तो सहन कर लेते हैं, किंतु जनता पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है । निन्दक लोगों को निन्दा करने का अवसर प्राप्त होता है और उस निन्दा रूपी कीचड़ के छींटे जब भरतेश्वर तक पहुँचते हैं, तो उन्हें भी इससे खेद होता है । आपके पधारने से बुराई का यह छिद्र बन्द हो जायगा और बन्धु-प्रेम की धारा अक्षुण्ण रहेगी।
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राजदूत की बात सुन कर बाहुबलीजी बोले;
" दूत ! तुम योग्य हो। तुमने अपना प्रयोजन बड़ी योग्यता के साथ निवेदन किया। मैं भी मानता हूँ कि ज्येष्ठ-बन्धु भरत, पिता के तुल्य सेव्य हैं । वे हमारा बन्धु-प्रेम चाहते हैं, यह भी उनके योग्य एवं उचित है । किन्तु बड़े भाई भरत, बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं और देवों से सेवित हैं । महान् ऋद्धि के स्वामी हैं । वे हमारे जैसे अल्प ऋद्धि वाले छोटे भाई के आने से लज्जित नहीं हो जाय, इसी विचार से मैं नहीं आया ।" राज्य को अपने आधीन करने में साठ हजार वर्ष तक लगे छोटे-छोटे राज्य को अपने अधिकार में करने के लिए ही दूत भेजे । यदि उनके मन में बन्धु-प्रेम होता, तो वे अपने राज्य अथवा युद्ध की इच्छा क्यों प्रकट करते ?"
'ज्येष्ठ-बन्धु, दूसरों के रहे और अपने छोटे भाइयों के उन्होंने सभी भाइयों के पास भाइयों के पास दून भेज कर
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'मेरे अन्य छोटे भाइयों ने बड़े भाई से युद्ध नहीं करने की शुभ भावना से ही .
अपना राज्य त्याग कर पिताश्री का अनुसरण किया। वे महान् सत्त्ववंत थे। तुम्हारे स्वामी ने उन छोटे भाइयों द्वारा त्यागे हुए राज्य को अपने अधिकार में ले कर, जिस लोभवृत्ति का परिचय दिया, यह उनके वन्धु-प्रेम का प्रमाण है, या राज्य- लोभ का ?"
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' चतुर दूत ! भरतेश्वर ने क्या वैसे ही शुभ भावों से तुझे मेरे पास भेजा है ? राज्य छिनना चाहते हैं ? किन्तु यहाँ उनकी वह बन्धुओं के समान राज्य का त्याग कर चला जाने
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अपने बन्धु-प्रेम के छल से वे मुझ से भी चाल सफल नहीं होगी । में उन छोटे वाला नहीं हूँ ।'
" में मानता हूँ कि गुरुजन - ज्येष्ठ व्यक्ति सेव्य हैं । किंतु तब तक ही, जब तक कि वे अपने गुरुत्व को धारण किये रहें । मन में स्वार्थ की मलिनता नहीं आने दे । गुणसम्पन्न गुरुजन ही पूज्य हैं । जो गुरुपद की ओट में स्वार्थ साधना करके गुरुत्व के गुणों से रहित होते हैं, उन्हें आदर-सत्कार देना तो लज्जास्पद है, विवेकहीनता है । में ऐसी विवेकहीनता से बचना चाहता हूँ। जिनके मन में कार्य - अकार्य, उचितानुचित और मद्गुणों को स्थान नहीं हो -- ऐसे नामधारी गुरुजन तो त्यागने लायक होते हैं ।"
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