Book Title: Tirthankar Charitra Part 1
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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भ० ऋषभदेवजी--बाहुबली नहीं माने
८३
निग्रंथ बनो। यही तुम सब के लिए हितकर है। इसीसे परमात्म पद की प्राप्ति होती है।"
___ 'भव्यों ! समझो, समझने और सम्यग्-धर्म की आराधना करने का ऐसा उत्तम अवसर बार-बार नहीं आता। यदि इस बार चुक गये, तो फिर स्वाधीनता चली जायगी। उठो और प्रमाद छोड़ कर सावधान हो जाओ।" - भगवान् आदि जिनेश्वर का उपदेश ९८ ही बान्धवों पर असर कर गया। उनके मोह का नशा हट गया और ज्ञान-चक्षु खुल गये । वे भगवान् के पास सर्वसंयमी निग्रंथ बन गए।
बाहुबली नहीं माने
अपने ९८ भाइयों का राज्य स्वाधीन हो जाने पर सेनापति ने सम्राट से निवेदन किया--
"महाराज ! चक्र-रत्न अब तक आयधशाला में नहीं आया।"
"क्यों मन्त्रीजी ! क्या बात है ? मेरे भाइयों का राज्य भी अब स्वतन्त्र नहीं रहा, तो अब क्या रुकावट हो गई ? ऐसा कौन वीर शेष रह गया, जिसने अब तक अपने को स्वतन्त्र बनाये रखा है ?"--सम्राट ने प्रधान-मन्त्री से पूछा।
"स्वामिन् ! और तो कोई नहीं, केवल आपके लघु-बन्धु श्री बाहुबलीजी ही बचे हैं, जो आपकी अधीनता स्वीकार करना नहीं चाहते । वे हैं भी महाबली और बलवानों के गर्व को नष्ट करने वाले । जिस प्रकार एक वज्र के सामने अन्य सभी अस्त्र नगण्य हैं. उसी प्रकार बाहुबलीजी के आगे सभी राजाओं का बल निरुपाय है। जब तक आप उन्हें नहीं जीत लेते, तब तक विजय अधूरी रहेगी"--प्रधान-मन्त्री ने नम्रतापूर्वक निवेदन किया।
___ भरतेश्वर विचार में पड़ गये। उन्होंने कहा--"एक ओर छोटा भाई आज्ञा नहीं मानता, यह भी लज्जा की बात है, दूसरी ओर भाई से पुद्ध करना भी अच्छा नहीं है। जिसकी आज्ञा अपने घर में ही नहीं चलती, उसकी आज्ञा बाहर कैसे चलेगी ? एक ओर छोटे भाई के अविनय को सहन नहीं करना भी बुरा है, दूसरी ओर गर्वोन्मत्त को शिक्षा देना भी राज-धर्म है। मेरे सामने एक उलझन खड़ी हो गई। क्या किया जाय ?"
"महाराज ! चिन्ता जोड़ कर श्री बाहुबलीजी के पास दूत भेजिए । वे ज्येष्ठबन्धु की आज्ञा मान लें, तो ठीक ही है, अन्यथा उन्हें शिक्षा देनी ही पड़ेगी । ऐसा करने
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